ये जो आपने ऊपर पढ़ा यह देवनागरी लिपि में लिखित गोंडी भाषा है, इसे मैंने खुद से नहीं लिखा है, मैंने इसे गूगल से ढूंढ कर लगाया। यदि आप यह जानकर हैरान हैं कि मैंने ऐसा क्यों किया तो आपको बताते चलूँ कि हर वर्ष 2 फरवरी को हम गोंड आदिवासी अपनी गोंडी भाषा दिवस मनाते हैं। गोंडी भाषा विश्व की सबसे बड़ी भाषाओं में से एक है, और यह एक प्राचीन भाषा भी मानी जाती है।
2 फरवरी को जब मैंने भी इस दिवस के सम्मान में व्हाट्सएप पर एक स्टेटस डाल कर अपने समुदाय के बारे दो-चार शब्द लिखने का सोचा तब पाता हूँ कि मेरे हाथों से हिंदी शब्द ही निकल रहे थे। मैं इस चिंतन में पड़ गया कि, गोंड समुदाय का होकर भी मैं गोंडी में क्यों नहीं लिख पा रहा था? आखिर क्यों मुझ जैसे युवाओं को अपने इस भाषा की इतनी कम जानकारी है? इन सवालों का जवाब पाने के लिए मैंने सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले कुछ लोगों एवं समाज के बुद्धिजीवियों से बातचीत की। वे बताते हैं कि स्कूल कॉलेजों में गोंडी भाषा की पढ़ाई होती ही नहीं है, और पहले तो पढ़ाई की कोई ढंग की व्यवस्था थी ही नहीं। परन्तु अब गोंड समाज के लोगों में अपने भाषा के प्रति जागरूकता आने लगी है, अब विभिन्न जगहों पर सामाजिक संगठनों द्वारा इस भाषा के प्रचार प्रसार को लेकर प्रशिक्षण दे रहीं हैं।
गरियाबंद जिले में भी ऐसा ही एक संगठन 'गोंडी धर्म संस्कृति समिति' द्वारा यह काम किया जाता है। इस समिति के जरिए गोंडी भाषा की उत्पत्ति, गोंडी भाषा क्या है? गोंडी भाषा किसने बनाया? आदि के बारे में प्रशिक्षण द्वारा जानकारी दिया जाता है। गोंडी धर्म जागरण समिति का सप्ताह में दो दिन वर्चुअल बैठक भी किया जाता है, जिसमें अपने गोंड समुदाय के इतिहास एव वर्तमान परिस्थितियों के बारे में युवाओं के बीच चर्चा की जाती है। इस समिति के जरिए मुझे यह भी पता चला कि ऐसी और भी संस्थाएं हैं जो इस तरह के नेक काम कर रहे हैं।
इन्हीं सामाजिक संस्थाओं के सहयोग से अब गोंडी भाषा में कई सारे किताब भी प्रकाशित हो चुके हैं। लेकिन ये किताबें केवल किसी आदिवासी सम्मेलन में ही देखने को मिलते हैं, मुख्य किताब दुकानों या बुक डिपो तक इन किताबों को पहुंचने में वक़्त है। इस भाषा को कम लोग जानने के कारण किताबों की मांग भी कम ही रहती है।
आज के इस आधुनिक युग में हमारे सभी आदिवासी समुदाय के युवा पढ़े लिखे और समझदार हो गए हैं फ़िर भी उन्हें अपनी भाषा का ज्ञान नहीं है। पहले समुदाय के लोगों को पढ़ने लिखने का उतना ज्ञान नहीं था फ़िर भी उन्हें अपनी भाषा बोलनी आती थी, लेकिन आज कि युवाओं को लिखना पढ़ना सब आता है फिर भी अपनी भाषा बोलनी नहीं आती है। अपनी भाषा जानने के लिए भी हम दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं। समाजसेवी संस्थाओं की वजह से कुछ सालों में हमें गोंडी भाषा की पुस्तकें छत्तीसगढ़ के स्कूलों में देखने को मिल सकती है, इसी तरह के और भी हमें क्या-क्या प्रयास करना चाहिए? अपनी राय हमें ज़रूर भेजें।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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