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लोकलुभावनवादी नीति और राजनीति पर, आदिवासी जनजाति पर एक सामान्य अध्ययन

Writer: Dr. Chitra RajoraDr. Chitra Rajora

Updated: Mar 28, 2023

पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित


इक्कीसवीं सदी ने, राजनीति में कई बदलाव देखे हैं। कई अवधारणाओं और सिद्धांतों को स्वीकार कर लिया गया था, जिन पर सवाल उठाया जा रहा है। उदार लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था, लोकलुभावनवाद के भूत से तेजी से प्रेतवाधित हो गई है। लोकलुभावनवाद, जो चुनाव अभियानों में चला गया था, अब दशक का शब्द बन गया है। क्योंकि, हम देखते हैं कि, कई लोकलुभावन नेता, कई देशों में सत्ता संभाल रहे हैं। लोकलुभावन दलों और सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व, अक्सर करिश्माई या प्रभावशाली शख्सियतों द्वारा किया जाता है। जो खुद को, "लोगों की आवाज" के रूप में पेश करते हैं। यह शब्द, ‘करिश्माई नेता’ वैचारिक दृष्टिकोण के अनुसार, लोकलुभावनवाद को अक्सर अन्य विचारधाराओं के साथ जोड़ा जाता है। जैसे कि राष्ट्रवाद, उदारवाद और समाजवाद। इस प्रकार, प्रसिद्ध परिभाषा राजनीतिक वैज्ञानिक, अर्नेस्टो लैक्लाऊ द्वारा दी गयी है। उनके अनुसार, “यह वंचितों एवं हाशिये पर पड़े लोगों का, एक वर्चस्व संगठन है। जिसमें, विभिन्न असंबंधित माँगो के आधार पर, एक समानधर्मा संयोजन कर रचना की जाती है।”


वर्तमान में, लोकतांत्रिक देशों में, लोकलुभावनवादी राजनीति का बोलबाला है। ऐसा समय आ गया है कि, हर पार्टी के सदस्य, अपने शक्ति को स्थिर रखने और सत्ता में बने रहने के लिए, अनेक दावपेंच अपनाते हैं। इसी में, सबसे महत्वपूर्ण हथियार, ‘लोकलुभावन दावों’ की घोषणा करना, जो नागरिकों के हितो के साथ ही नेताओं के हित में भी होता है। इस प्रकार, व्यक्तिगत हित में देखा जाये, तो नागरिकों को राजनीति में, विशेष रूचि नहीं होती है और इस व्यवहार से नागरिक, अपने हितों और इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए, लोकलुभवान वादों में आकार, पार्टी का सहयोग करते हैं। यह प्रवृति, व्यक्तिगत भावना और हित से प्रेरित होती है। इसलिए, यह ‘लोकतांत्रिक शासन’ का अर्थ बदलकर, ‘हितकारी शासन’ में बदल गया है। जहाँ पर दोनों, नागरिक और राजनेता, अपने-अपने हितों की पूर्ति करते हैं।


इसी प्रकार, इस लेख में, ‘आदिवासी जनजाति’ को ध्यान में रखकर, “लोकलुभावन नीति और राजनीति” का अध्ययन किया गया है। आदिवासी जनजाति के समक्ष, राजनीतिक पहचान और अस्मित्ता का संकट बना रहता है। उत्तर-पूर्वी भारत से लेकर झारखण्ड, छत्तीसगढ़ एवं ओडिसा तक के, मध्य भारत में, अलग-अलग प्रकार के आदिवासी, अस्मितापरक अभिव्यक्तियां रही हैं। गुजरात, केरल, महाराष्ट्र व तमिलनाडु तक फैले, इस बहुस्वरी अस्मिताओं का संसाधन को लेकर, उनकी मांगो में, संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण की धारणा, प्रबल रही है। इस बात का फायदा राजनेता और राजनीतिक दलों को मिलता है। इसलिए, नेता और राजनीतिक दल, भारतीय आदिवासियों के समक्ष, अपनी राजनीति के लिए, उनकी भावनाओं को साध कर, लोकलुभावन राजनीति का उपयोग करते हैं। या यूँ कहे, राजनेता, अपनी करिश्माई राजनितिक नेतृत्व पर आधारित, लोकलुभावनवाद राजनीति का एक बढ़िया उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसी संदर्भ में, सरकार, प्रायोजित लोकलुभावनवाद जनतांत्रिक माँगो को, अभिशासन के तर्कों के साथ समाहित और व्यवहारिक धरातल पर उसका उपयोग में लाता है।


भारतीय समाज में, विभिन्न जनजातियों का अस्तित्व, हमारी सांस्कृतिक विरासत है। आधुनिक युग की खोज, उपभोक्तावाद पर आधारित है। लेकिन, आदिम जनजातियों का आदिम इतिहास के संदर्भ में, अध्ययन करना भी आधुनिक समाज की आवश्यकता है। ये आदिम आदिवासी जनजातियाँ, जंगलों में रहती हैं, जंगल ही इनका जीवन है और आधुनिकता की चकाचौंध से कोसों दूर हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि, यह जनजातियाँ अपने जंगली वातावरण में जीवन जीने के लिए बनी हैं। सदियों से पिछड़ी, यह आदिम जनजाति, आज, आधुनिकता की दौड़ से बहुत दूर है। इन जनजातियों के आर्थिक, सामाजिक विकास के साथ-साथ राजनीतिक विकास आवश्यक हो गया है। इन जनजातियों को, आधुनिक समाज से राजनीतिक रूप से जोड़ने के लिए, कई संवैधानिक प्रावधान भी किए गए हैं।


आदिवासी जनजाति की केंद्रीय सरकार और राज्य सरकार से सीधा सम्बन्ध नहीं होता है। जिसके कारण, आदिवासी जनजाति को अपने राजनितिक, सामाजिक और आर्थिक विकास के साथ-साथ अपने समाज के पहचान और वैधता नहीं मिल पायी है। वर्तमान में, ऐसी अनेक आदिवासी जनजाति हैं। जैसे आंध्र प्रदेश के कोया, कोंडा, कोलम्स, चेंचस और कोंडा रेड्डी थोटी हैं। इसी प्रकार, भारत में, भारत के पूरे उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में, अक्सर पाए जाने वाले प्रमुख जनजातियों में से कुछ प्रमुख हैं, जैसे कि, गारो जनजाति के आदिवासी समूह, खासी जनजाति, जयंतिया जनजाति, आदि जनजाति और अपातानी जनजाति, अरुणाचल प्रदेश में, कुकी जनजाति, बोडो जनजाति और असम में, देवरी जनजाति जो बिखरे हुए हैं।

फोटो साभार: टाइम्स ऑफ़ इंडिया

भारत में, चुनाव होने के समय, अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए, अलग-अलग राजनीतिक दलों द्वारा, केंद्रीय शासित और प्रांतीय शासन व्यवस्था के नीति कार्यक्रमों को देखना पड़ता है। हाल ही में, भारत के मुख्य न्यायाधीश, एन वी रमना की अगुवाई वाली पीठ ने, लोकलुभावने वादों या मुफ़्त में दिए जाने वाले सामान तथा लोककल्याण के बीच, अंतर करने को कहा। अर्थ यह है कि, राजनीतिक दलों द्वारा लोककल्याण और मुफ्त स्कीम को जोड़ दिया जाता है। जिसका प्रभाव, राज्य वित्तीय बजट पर पड़ता है। जोकि, एक गंभीर मुद्दा है। और यह वाद-विवाद का विषय बना हुआ है।


यद्यपि, हम, आदिवासी जनजाति के प्रति, राजनीतिक दलों की प्रवृति को देखे, तो यह राजनीतिक वोट बैंक, एक अहम बिंदु है। जिसके कारण, दलों की सत्ता में परिवर्तन हो सकता है। इसलिए, आदिवासियों के हितों और कल्याण के लिए, केंद्र सरकार और प्रांतीय सरकारें, लोकलुभावने वादे करती आयी हैं। जैसे ही विधानसभा चुनाव की शुरुआत होती है, प्रमुख दल, अपने मतदाताओं के लिए लंबे-चौड़े वायदों वाला, चुनावी घोषणा पत्र जारी करते हैं। आरबीआई की रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब के बाद आंध्र प्रदेश, देश में, "मुफ्त उपहार" पर पैसा खर्च करने के मामले में दूसरे स्थान पर है।


झारखण्ड में, साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों पर नजर रखते हुए, नेता, अपने पारंपरिक वोट बैंक को लुभाने के लिए, हर संभव कदम उठा रहे हैं। झारखण्ड के विधायक, चंपई सोरेन ने कहा, "बिहार, बंगाल और ओडिशा के बाहरी लोगों को, इन कंपनियों में रोजगार मिल रहा है और हमारे आदिवासी और मूलवासी भाई-बहन बेरोजगार रह गए हैं।" चंपाई ने, पड़ोसी राज्य ओडिशा का उदाहरण दिया, जहाँ, कई कंपनियाँ, केवल स्थानीय लोगों को नौकरी देती हैं। और कहा कि, “इस तरह की पहल को, यहां भी अपनाया जाना चाहिए।” उन्होंने आगे कहा कि, झारखण्ड में, “केवल आदिवासियों और मूलवासियों के लिए, नौकरी, आगामी चुनावों में, उनके मुख्य मुद्दों में से एक होगी।” उन्होंने साथ ही कहा कि, “राज्य का 'जल, जंगल, जमीन’ आदिवासियों का ही है।” इसका अर्थ है कि, सरकार, केवल सीमित स्तर पर ही लोगों को लुभाकर, अपना मकसद पूर्ण करती है। गौरतलब है कि, आंध्र प्रदेश में. कुछ ऐसे आदिवासी समुदाय हैं, जिनको, अभी तक मताधिकार नहीं मिला है। विकास की सर्वांगीण पठकथा में, आदिवासी हितों को सबसे आख़िर में डाल दिया जाता है। परिणामस्वरूप, उनको सीमांत कर दिया जाता है।

चंपई सोरेन (फोटो साभार: टेलीग्राफ इंडिया)

आदिवासियों को, केवल लुभावनी बातो में, ‘एक वोट बैंक की राजनीति’ का रूप दे दिया जाता है। जैसी कि, बी.जे.पी नेता, अमित शाह द्वारा अपने भाषण में कहा गया कि, “जब से मोदी सरकार ने सत्ता संभाली है, तब से आदिवासी लोगों के जीवन में बदलाव आया है और यह सुनिश्चित करते हैं कि, उन्हें सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिले।” इसक साथ ही कांग्रेस दल पर आरोप लगया, आजादी के बाद से 70 वर्षों में, कांग्रेस द्वारा वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया गया था। पार्टी ने, आदिवासियों के कल्याण के लिए, कुछ नहीं किया। जब भी भाजपा सत्ता में आई, उसने आदिवासियों के लिए, कई विकास योजनाएं शुरू कीं। गृह मंत्री ने, ये भी कहा कि, केंद्रीय आदिवासी मामलों का मंत्रालय तब अस्तित्व में आया, जब भाजपा के, अटल बिहारी वाजपेयी, प्रधानमंत्री थे। और आदिवासियों को मुफ्त घर, रसोई गैस आपूर्ति और बिजली कनेक्शन के लिए, मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का, सबसे ज्यादा लाभ हुआ है। उन्होंने आगे कहा, "कांग्रेस ने आदिवासियों को अंधेरा, अशिक्षा और गरीबी दी। मोदी सरकार ने पांच साल में, आदिवासियों को बिजली, शिक्षा, मुफ्त घर और मुफ्त गैस दी है।" शाह ने, कांग्रेस के इस दावे के लिए भी फटकार लगाई कि, देश के संसाधनों पर लोगों के एक खास वर्ग का पहला अधिकार है। गृह मंत्री ने आदिवासी प्रतीक को प्यार से याद करते हुए कहा कि, “देश, आदिवासियों को उनका अधिकार देने के लिए, अंग्रेजों के खिलाफ उनकी लड़ाई को नहीं भूल सकता।” उन्होंने, वनों और पर्यावरण की सुरक्षा में, उनके योगदान के लिए, आदिवासियों की प्रशंसा की। यही नहीं, उत्तर पूर्वी भारत में, भाजपा की अप्रत्याशित सफलता, यह बात रेखांकित करती है कि, इन क्षेत्रो में, आदिवासी समुदायों के बीच, भाजपा, अपना वैचारिक विस्तार अनवरत कर रही है। पश्चिम बंगाल में, राज्य प्रायोजित लोकलुभावनवाद को, बिहार एवं उड़ीसा जैसे राज्यों से तुलना कर सकते हैं या राष्ट्रिय स्तर पर मोदीत्व का उभार या तमिलनाडु जैसे राज्य में इसका दूसरा रूप समाने आता है।

अमित शाह (फोटो साभार: न्यूज़ इंडिया एक्सप्रेस)

लोकलुभावनवादी राजनीति, एक प्रकार से राजनीतिक दलों और नेताओं की कमजोरी और सत्ता के भय को दर्शाता है। जिसके कारण, वे नागरिकों की मूल भवनों को निशाना बनाकर, अपने चुनावी घोषणपत्र में शामिल करते हैं। यदि, व्यवहारिक स्तर पर देखा जाये, तो नागरिक अपने सीमित लाभ को ही प्राथमिकता देते हैं। लेकिन, वे यह भूल जाते हैं कि, उनकी, इस प्रकार की गतिविधि, देश के शासन को भ्रष्ट बनाने का, एक अहम भूमिका निभाती है। यह समान विचार, आदिवासी लोगों पर लागू होता है। दलों के लोकलुभावन नेतृत्व द्वारा, अपनी सत्ता को, चुनावी वैधता प्रदान की जाती है। ताकि, जनता की अंतरतम भावनाओं के एकमात्र सच्चे वैध प्रतिनिधि के रूप में, अपनी दावेदारी को मजबूत किया जा सके।


लेखक परिचय: डॉ. चित्रा राजोरा, जे एन यु विश्वविद्यालय की पीएचडी स्कॉलर हैं। इन्होंने तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में, शक्ति एन जी ओ को, विभिन्न क्षेत्र अध्ययनों और प्रलेखन के साथ-साथ अनुवाद कार्यों में सहायता की है। इन्हें जनजातीय, मानवशास्त्रीय और भाषाई कार्यक्षेत्रों में कार्य करने में विशेष रूचि है।


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