संजय कुमार हाँसदा द्वारा सम्पादित
समूचे भारत में यह विदित है कि छतीसगढ़ के हरियर को धान का कटोरा कहा जाता है | यह क्षेत्र कला और संस्कृति का भी भण्डार है | यह क्षेत्र अपनी अद्भुत परम्पराओं, निपुण कलाकारों एवं समावेशी संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है | यहाँ बसने वाले आदिवासियों में एक समुदाय ऐसा है जो सिंकारा की धुन पर गीतों के रूप में प्राचीन कथाओं का वचन कर लोक मनोरंजन का कार्य करते हैं |
जगत भर में विख्यात एवं पद्मभूषण विभूषित श्रीमती तीजन बाई ने जिस प्रकार पांडवों एवं कौरवों की कथाओं को अपनी पंडवानी में गीतों में ढालकर जनमानस को मन्त्रमुग्ध किया, उसी प्रकार आदिवासी समुदाय के कुछ फ़कीर भी कर रहे हैं | ये आदिवासी फ़कीर अपने सिंकारा के साथ गाँव-गाँव घूम एवं घर-घर जा प्राचीन कथाओं एवं घटनाओं को सुमधुर गीतों में ढाल कर लोक रंजन का अनिवार्य अंग बन गए हैं | इन गीतों से झूमकर गाँव की बहनें इन फकीरों को मुट्ठीभर चावल, दाल, नमक, मिर्च आदि देतीं हैं | लोक के इसी मुट्ठीभर दान से इन फकीरों का घर चलता है | अतः यह कहना न होगा कि इन फ़कीर आदिवासियों कि स्थिति अत्यन्त ही दयनीय है |
ऐसे ही एक आदिवासी फ़कीर बाबा से मिलना हुआ जो सिंकारा बजा कर बड़ी दयनीयता में अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं | फ़कीर बाबा कहते हैं कि वे सुबह ही अपने सिंकारा के साथ निकल जाते हैं और फिर दिनभर कई गाँव घूम अपने गीतों से लोगों का मनोरंजन करते हैं | वे आगे कहते हैं कि इन गीतों के बदले उन्हें लोगों से जो भी दान स्वेच्छा से मिल जाता है वे उसे ही ग्रहण करते हैं और फिर उसी दान से उनके परिवार का पोषण होता है | बाबा ने आगे बताया कि सिंकारा बजाना इतना सरल नहीं है, यह सभी नहीं सीख पाते | उनका मानना है कि इस वाद्ययंत्र में उनके पूर्वजों के देवता विराजते हैं | यह देवता सदैव उनकी सहायता के लिए तत्पर रहते हैं |
वाद्ययंत्र सिंकारा की बनावट
इस लोक वाद्ययंत्र सिंकारा की बनावट और इसके संगीत के सिद्धांत के बारे में फ़कीर बाबा हीरालाल जी से पता चला | उन से पता चला कि वाद्ययंत्र सिंकारा बड़े ढोल बनाने वाली लकड़ी साल ( सरई ) या सागौन से बना होता है | इसे भीतर से खोखला किया जाता है तथा सबसे नीचले भाग में गोहिटा जानवर या बड़ी छिपकली के चर्म का प्रयोग किया जाता है | इसमें तीन से चार पतले किन्तु मजबूत तार लगाए जाते हैं | इन्हीं तारों से सिंकारा की मधुर ध्वनि फूटती है | बनावट इतना सरल प्रतीत होते हुए भी इसे बनाने में कुछ महीनों का समय लग ही जाता है | इसमें धनुष या अर्धचन्द्राकार बाँस की लकड़ी लगी रहती है जिसमें तारों को बांधा जाता है | वाद्ययंत्र की सुन्दरता में वृद्धि के लिए इसी बाँस की लकड़ी पर घुंघरू भी बांध दिए जाते हैं जिस से मोहने वाली रुनझुन-रुनझुन झंकार आती रहती है और लोगों का ध्यान अपनी ओर बरबस ही आकर्षित कर लेती है | इसे बजा पाना इतना सरल नहीं है | सिंकारा को हस्तगत करने के लिए सात सुरों का ज्ञान तो चाहिए ही साथ ही अथक अभ्यास की भी आवश्यकता होती है |
फ़कीर आदिवासियों का चोला
फ़कीर आदिवासियों की वेशभूषा सन्त जनों से काफी मिलती जुलती है | पीला और भगवा धोती-कुर्ता, सर पर मुरैठे की तरह सजी पगड़ी और कांधे पर लटकी थैली बड़ी स्पष्टता से इनकी पहचान करा देते हैं | यद्यपि इनका यह भेष डरावना नहीं होता है फिर भी गाँव के छोटे बच्चे इनसे डर कर अपने घरों में घुसते दिख जाते हैं | आदिवासियों की भाषा में इन्हें गोदरिया बाबा के नाम से जाना जाता है | ये गोदरिया बाबा साल में 8 से 10 बार गाँव का भ्रमण करते हैं | अपने भ्रमण के दौरान गीतों में ढली हुई प्राचीन कथा सुना कर लोगों का मनोरंजन करते हैं | इन्हें दान में कभी-कभी अनाज के साथ-साथ कपड़े भी मिल जाते हैं | इस दानकर्म के पीछे यह मान्यता है कि इससे घर के क्लेश नष्ट होते हैं और घर सुखी रहता है | इस दानकर्म से लोगों को भी सुख की अनुभूति होती है |
चोले से फ़कीर सुरों से सम्राट
फ़कीर बाबा सात सुरों के विषद ज्ञाता होते हैं | जब इन फकीरों की उंगलियाँ सिंकारा के तने हुए तारों पर थिरकती हैं तो लोकधुन की ऐसी धारा फूटती है कि सभी ग्रामवासी मन और तन दोनों से थिरकने लगते हैं | समूछे गाँव को झुमाने वाले फ़कीर बाबा मन तब भी शान्त ही बना रहता है |
यह लेख Adiwasi Aawaaz प्रोजेक्ट के अन्तर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog Samaj Sevi Sanstha और Miseroer का सहयोग है l
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