चाहे भूमि अधिकारों की लड़ाई हो या शराब से मुक्ति, एकता परिषद एक न्यायपूर्ण समाज की दिशा में आदिवासियों के लिए काम कर रही है
संगठित लोग न सिर्फ़ अपने अधिकारों के प्रति अधिक सचेत रहते हैं बल्कि उनके लिए लड़ने की बेहतर स्थिति में भी होते हैं। ऐसे में समाज के लोगों के अधिकारों के लिए ईमानदारी से लड़ने वाले संगठनों का महत्व बहुत बढ़ जाता है। ऐसा ही एक संगठन है, एकता परिषद। एकता परिषद ग्रामीण क्षेत्रों के आदिवासियों के साथ काम करती है। ये आदिवासी समुदाय के बीच सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों के बारे में जागरूकता लाने का काम करती है। साथ ही आदिवासी हितों के लिए आवाज़ भी उठाती है।
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मुरली दास संत, ग्राम बिंझरा के निवासी हैं। ये एक समाज सेवक हैं और एकता परिषद के प्रदेश संयोजक हैं। वे देश-विदेश में जाकर एकता परिषद संगठन से जुड़कर समाज सेवा का काम करते हैं। वे एकता परिषद में 21 सालों से काम कर रहे हैं। उनका कहना है कि एकता परिषद एक ऐसा संगठन है जो आदिवासियों के हित के लिए काम करता है। एकता परिषद के द्वारा आदिवासी लोगों को विभिन्न योजनाओं के बारे में बताने, उनके अधिकारों के बारे में बताने का काम किया जाता है। यह ग़रीबों और आदिवासियों के लिए काम करती है। ये ग़रीब लोगों के हक़ के लिए शांतिपूर्वक काम करते हैं। उनका कहना है कि एकता परिषद एक अंतरराष्ट्रीय जन संगठन है। वैचारिक रूप से यह गाँधी के सिद्धांतों पर कार्य करती है। एकता परिषद न्याय और शांति के मुद्दों पर काम करती है। यह संगठन पांडो, कोरवा आदि आदिवासियों को आगे लाने का प्रयास करती है।
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हम एकता परिषद के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति करमपाल चौहान से मिले। उन्होंने हमें बताया है कि एकता परिषद समाज के निचले स्तर के लोगों को आगे लाने का काम करती है। उनके अंदर बोलने में जो झिझक होती है, उसे दूर करने का प्रयास करती है। उनको हक़ दिलाने का भी प्रयास करती है। उन्होंने हमें बताया कि एकता परिषद जल, ज़मीन, जंगल के मुद्दों पर काम करती है और उन्हें कैसे बचाया जा सके इसके बारे में आदिवासी लोगों को जागरूक करती है। आदिवासियों का मूल निवास स्थान जंगल ही होता है। उनकी पूंजी भी जल, ज़मीन, जंगल ही होती है। उनके बिना आदिवासी अधूरे हैं। इसलिए इन्हें कैसे बचाया जा सके इसके बारे में आदिवासियों को प्रेरणा दी जाती है ताकि आदिवासी अपने हक़ को बचा सके। करमपाल चौहान जी ने हमें यह बताया कि वे गाँवों में फैली रूढ़िवादी परम्पराओं को भी दूर करने का प्रयास करते हैं।
गाँव में शराब बनाये जाने को रोकने के लिए एक समिति का गठन किया जाता है। गाँव की स्वास्थ्य कर्मचारी मितानिन, समिति गठित करके गाँव के मुख्य व्यक्तियों और कुछ अन्य लोगों को साथ में लेकर शराबबंदी करने में मदद करते हैं। यह सब कार्य एकता परिषद की ओर से होता है और वे सभी लोगों को नशा मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं।
एकता परिषद के द्वारा शराब बंदी का कार्य
हमने करमपाल चौहान जी से एकता परिषद के बारे में विस्तार से चर्चा की। उन्होंने हमें बताया कि ऐसे बहुत से गाँव हैं जहाँ वे लोग शराबबंदी का काम कर चुके हैं। सबसे पहले शराबबंदी करने के लिए गाँव के कुछ लोग एक समिति का गठन करते हैं। वे गाँव-गाँव जा कर लोगों को शराब से होने वाले नुकसान के बारे में बताते हैं। करमपाल चौहान जी के ऐसे कार्यों को देखते हुए लोग बहुत प्रभावित हुए हैं। अब लोग उनके पास आकर उनसे संगठन निर्माण और सामाजिक सेवा कार्य के बारे में सलाह लेते हैं।
एकता परिषद के महत्वपूर्ण कार्य
एकता परिषद आदिवासी और जल, जंगल, ज़मीन के मुद्दों पर विशेष कार्य करती है। आदिवासियों को गाँव में ज़मीन से संबंधित पट्टा दिया जाता है, लेकिन कई बार उनको ये पट्टा नहीं दिया जाता। जिनके पास ज़मीन का पट्टा नहीं होता, उन्हें उस ज़मीन से निकाल दिया जाता है। ऐसा करके आदिवासियों की ज़मीन हड़प ली जाती है। इस वजह से आदिवासियों को न सिर्फ़ बहुत ज्यादा परेशानी झेलनी पड़ती है बल्कि उनका हक़ भी छीन लिया जाता है। एकता परिषद उनके हक़ को दिलाने का काम करती है। ज़मीन के पट्टा से संबंधित जितनी भी जानकारी होती है आदिवासियों को बताती है ताकि वे अपने हक के लिए, अपनी ज़मीन के लिए लड़ सकें। ताकि आदिवासियों का ज़मीन कोई दूसरा व्यक्ति हड़प ना सके। एकता परिषद आदिवासियों के लिए एक वरदान साबित हो रही है। आदिवासी अपने हक़ के लिए और मज़बूती से बोल पा रहे हैं।
इसी प्रकार हमने पंडरीपानी के एक निवासी से बात की तो उन्होंने हमें बताया कि एकता परिषद के द्वारा जल, जंगल, ज़मीन से संबंधित बहुत सारी जानकारी दी जाती है। उन्होंने हमें यह भी बताया कि वे अपने जल जंगल की लड़ाई के लिए पैदल दिल्ली यात्रा किए थे और धरने पर बैठे थे। जिससे उनकी मांगे पूरी हुई और सभी आदिवासियों को ज़मीन का पट्टा बना कर दिया गया। ज़मीन का प्रमाण पत्र मिलने से और एकता परिषद से जुड़ कर आदिवासी लोग बहुत खुश हैं। इस पट्टे का लाभ 14 हज़ार लोगों को मिल चुका है।
जल, जंगल, ज़मीन का संरक्षण
छत्तीसगढ़ को वन अधिकार पट्टा देने में दूसरे स्थान पर शामिल किया गया है। यह पट्टा भूमि का अधिकार प्रमाण पत्र होता है। जिसे ना तो बेचा जा सकता है और ना कोई उसे खरीद सकता है और ना ही दूसरा व्यक्ति आकर उसे हड़प सकता है। कोई दूसरा व्यक्ति आकर यह भी नहीं बोल सकता कि, यह ज़मीन हमारा है। क्योंकि जिनके पास ज़मीन का पट्टा या वन अधिकार पट्टा होता है वह ज़मीन उसी का होता है। वन अधिकार पट्टा मुख्यमंत्री के द्वारा जारी किया जाता है। पट्टे पर लाभान्वित लोगों का नाम भी लिख दिया जाता है। अगर कोई दूसरा व्यक्ति आकर बोले कि यह ज़मीन मेरा है, तो आदिवासी लोग उस पट्टे को निकाल कर दिखा सकते हैं। वन अधिकार पट्टा ही आदिवासियों की ज़मीन का प्रमाण होता है। इसे शहरों में भी दिया जाता है, क्योंकि आदिवासी गाँव व शहर दोनों जगह रहते हैं। जिनके पास प्रमाण पत्र होता है उसे भूमि स्वामी भी कहा जाता है।
हमें अपने हक़ की लड़ाई लड़नी चाहिए। जिस पर हमारा अधिकार है चाहे वह जल हो, चाहे जंगल या फिर ज़मीन हो, उसके लिए हमें आवाज़ उठानी चाहिए। हमें अपने अधिकारों के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए, ताकि हम दूसरों को भी उनके अधिकारों के बारे में समझा सके और हम खुद अपने अधिकार के हक़ के लिए लड़ सकें।
यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अन्तर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog Samaj Sevi Sanstha और Misereor का सहयोग है l
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