प्रकृति और आदिवासियों के बीच अटूट रिश्ता है। पारंपरिक रूप से आदिवासी न सिर्फ प्रकृति पर आश्रित रहे हैं बल्कि उसकी रक्षा भी करते आये हैं। आदिवासी समाज ने इस बात को बहुत पहले ही समझ लिया था कि मनुष्य को अगर अगली पीढ़ी के लिए एक बेहतर दुनिया बचा के रखना है तो उन्हें पर्यावरण की रक्षा करनी होगी। और यह आदिवासी ज्ञान उनका जीवन मूल्य बन गया। आज भी तमाम मुश्किलों के बावजूद आदिवासी पीढ़ी दर पीढ़ी पर्यावरण संरक्षण करते आ रहे हैं।
दुनिया भर में वन संरक्षण में सबसे बड़ा योगदान आदिवासियों का है, जो परंपराओं को निभाते हुए शादी से लेकर हर शुभ कार्यों में पेड़ों को साक्षी बनाते हैं। आज आदिवासी लोगों पूरी दुनिया को बता दिया है कि पेड़-पौधों का कितना महत्व होता है। आदिवासी लोगों के जीवन मूल्यों से पूरे विश्व को एक सीख मिलती है। आज पुड़ा विश्व इनके बताए हुए रास्ते पर चलने की कोशिश करते हुए 5 जून को पर्यावरण दिवस मना रहा है।
गरियाबंद जिले के दर्शनीय मलेवा पहाड़ : प्रकृति और आदिवासी के गहरे संबंध की मिसाल है गरियाबंद का मलेवा पहाड़ । गरियाबंद जिला 5822.861 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला, प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण जिला है। कहा जाता है कि गिरि यानी पर्वतों से घिरे होने के कारण इसका नाम गरियाबंद रखा गया है। गरियाबंद जिले में मलेवा पहाड़ है जिसके आस-पास के आदिवासी लोग प्रकृति माँ के रूप में उसकी पूजा करते हैं। मलेवा पहाड़ लादाबाहरा गाँव से जुड़ा हुआ है। इस पहाड़ से कामना की जाती है कि पहाड़, धरती की हरियाली बनी रहे।
आदिवासी प्रकृति के पुजारी हैं : मलेवा पहाड़ के चट्टानों व पहाड़ों में देवी-देवताओं की पूजा-पाठ की जाती है। आदिवासी लोग मलेवा पहाड़ में स्थापित "रानी मां मंदिर" जिसे केरापानी नाम से जाना जाता है, की पूजा करते हैं। इस स्थान को केरापानी नाम से इसलिए जाना जाता है क्योंकि वहाँ डुमर और केले के पेड़ की जड़ों से 12 माह जल निकलकर बहता रहता है। यह पानी काफी मधुर होता है। पहाड़ की चट्टान पर राहबूढ़ा का पूजा की जाती है। यहाँ प्रतिवर्ष नवरात्रि, शिवरात्रि के त्योहार पर छोटा सा मेला लगता है। इस पहाड़ में अनेक देवी स्थल हैं। मलेवा पहाड़ के नजदीक रहने वाले आदिवासी प्रकृति को अपनी माँ का दर्जा देते हैं, तभी तो इसे संजोने की हर संभव कोशिश करते हैं। प्रकृति की गोद में रहने वाले आदिवासियों की जिंदगी कुदरत की नेमतों पर निर्भर होती है, इसलिए वह इसकी हिफाजत जी-जान से करते हैं। इस गाँव के लोग अपनी संस्कृति को ही अपनी जननी मानते हैं, यही है इस मलेवा पहाड़ के आदिवासी गाँव की पारंपरिक संस्कृति।
मलेवा पहाड़ में अनेकों रहस्यमय गुफाएं हैं और 56 छोटे-बड़े झरनों सहित अनेक दर्शनीय स्थल भी हैं। जैसे अंधियार झोला गवटेवा आदि झरने हैं, जो कि यहाँ के आसपास के आदिवासी गाँवों को दर्शनीय बनाता है। झरने का पानी बहकर सिकासार जलाशय में जाकर मिलता है। विभिन्न राज्यों से बड़ी संख्या में लोग प्रतिवर्ष मलेवा आंचल के झरने को देखने के लिए आते हैं। मलेवा पहाड़ के आसपास ऐसे कई वनस्पति पाए जाते हैं जो औषधि के रूप में काम आते हैं। मलेवा पहाड़ काफी विशालकाय एवं ऊंचा पर्वत है। यहाँ काफी जंगली जानवर पाए जाते हैं। मलेवा पहाड़ पर्यावरण संरक्षण की मिसाल है ।
विश्व पर्यावरण दिवस को तब ही सफल बनाया जा सकता है, जब हम पर्यावरण का ख्याल रखेंगे। हर व्यक्ति को ये समझना होगा कि जब पर्यावरण स्वच्छ रहेगा तब ही इस धरती पर जीवन संभव है। कई साक्षर लोग इसी मानसिकता के होते हैं, कि जंगलों में रहने वाले आदिवासी समाज में ना तो जीने का ढंग है और न ही शिक्षा लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि उन्होंने सैकड़ों सालों से जंगलों में रहते हुए, अपना अस्तित्व बनाये रखने की नायाब कलाएं विकसित की हैं।
1972 में संयुक्त राष्ट्र में 5 से 16 जून तक मानव पर्यावरण पर शुरू हुए संयुक्त राष्ट्र आम सभा और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के द्वारा कुछ प्रभावकारी अभियानों को चलाने के लिए विश्व पर्यावरण दिवस की स्थापना हुई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण सुरक्षा के तरफ ये भारत का पहला कदम माना जाता है। इसलिए ये दिन भारत के लिए विशेष महत्वपूर्ण माना जाता है । हम सभी को मिलकर अपने पर्यावरण की रक्षा करनी चाहिए। क्योंकि स्वस्थ एवं सुरक्षित पर्यावरण के बिना समाज की कल्पना भी अधूरी है। इसका मुख्य उद्देश्य प्रकृति के प्रति लोगों में जागरूकता लाना है ।
यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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