पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर संभाग को, जहाँ खुबसूरत जंगल, प्राकृतिक सौंदर्य, आदिवासी संस्कृति वाला जिला और छत्तीसगढ़ प्रदेश के सांस्कृतिक नगरी के साथ ही नक्सल माओवादी संगठन के गढ़ के नाम से जाना जाता है| बस्तर में जो रीति-रिवाज, नेग-दस्तुर और परंपरा पूर्वजों के समय से चल रही थी। ठीक उसी प्रकार, आज भी यही रीति-रिवाज और परंपरा चलती आ रही है, और यह बस्तर में, “झिटकू-मिटकी” के प्रेम कहानी के कारण चलती आ रही है। बस्तर में रीति-रिवाज, नेग-दस्तूर और परम्परा, झिटकू-मिटकी की ही देन है। जिनको सुकल और सुकलदाई भी बोला जाता है।
बस्तर संभाग के प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण जिला कोण्डागांव के गांव विश्रामपुरी, जहाँ झिटकू नामक व्यक्ति रहा करता था। उसे एक दिन गांव के मड़ई मेला में पेंड्रावन के मिटकी नामक एक लड़की मिली। पहली मुलाक़ात में ही दोनों ने एक दुसरे को देखकर पसंद कर लिया था, और उन दोनों ने साथ में जीने-मारने की कसमें खायी।
वहां से उनकी प्रेम कहानी की शुरुआत हुई। मिटकी के सात भाई थे। उनके मिलने के कुछ दिन बाद ही मिटकी के सातों भाई को उनके बारे में पता चल गया था। मिटकी के सातों भाई, उनके प्रेम कहानी से खुश नहीं थे। लेकिन, मिटकी के जिद के आगे सभी भाईयों को शादी के लिए हामी भरनी पड़ी। और साथ में लमसेना (घर जमाई) के लिए भी उसने अपने भाइयों को मना लिया था।
शादी के बाद परिवार की संख्या बढ़ गई। संख्या बढ़ने के बाद, रोजी-रोटी कमाने के लिए सब कोई काम पर जाते थे। वे सब मिलके खेती-किसानी करते थे, और सभी ने मिल कर खेत में पानी के सिंचाई के लिए बांध बनाने के विषय में सोचा। आपसी बातचीत के बाद, सभी ने बांध बनाने का निर्णय लिया और फिर बांध बनाने की तैयारी करने लगे। फिर, आधा बांध तो बन गया। लेकिन, मेढ़ पुरा नहीं बन पा रहा था। एक रात मिटकी के भाई को सपना आया कि, जब तक नरबलि नहीं दी जायेगी, तब तक बांध पूरा नहीं बन पायेगा।
नरबलि की बात को नजरअंदाज करके, मिटकी के सातों भाई ने मिलके फिर भी बांध के मेढ़ को बांधने के लिए बहुत कोशिश की। लेकिन, वे सफल नहीं हुए। फिर, उन्होंने नरबलि के लिए आदमी ढूंढना चालू किया। लेकिन, वहां भी उन्हें असफलता ही हाँथ लगी। उसके बाद गांव के कुछ लोगों ने मिटकी के सातों भाईयों के कान भर दिये कि, क्यों न झिटकू की ही बलि दे देते हैं। और फिर, मिटकी के भाईयों ने छल से, झिटकू की नरबलि दे ही दी।
बलि देने के कुछ देर बाद ही मौसम बदल गया। और बहुत बारिश होने लगी और इधर मिटकी अपने झिटकू का इंतजार करते, घर के अंगना में बैठी हुयी थी। झिटकू का इंतजार करते हुए मिटकु को रास नहीं आया, तो अपने बांस के बने टोकरी नुमा गप्पा और साबर को पकड़ कर के खोज के लिए निकल गई। जब खोजते-खोजते मिटकी बांध के पास पहुँची। तब उसने देखा कि, झिटकू का गला कटा हुआ था। इस स्थिति को देख के मिटकी समझ गई कि, ये सब उसके भाईयों ने मिलके किया है।
झिटकू से किये वादे, जियेंगे तो साथ जियेंगे और मरेंगे तो साथ मरेंगे। इस वादे को पुरा करने के लिए, अपने भाईयों के हृदय को देखकर, मिटकी भी अपना प्राण त्याग कर दी। और वहीँ, एक-दुसरे के लिए समर्पित प्रेमी जोड़े का अंत हो गया। उसके बाद जब गांव वालों ने ये दशा देखी, तो उनके अमर-प्रेम के परियाय देने वाले झिटकु-मिटकी को गांव में देव के रुप में सेवा देने लगे। इसी कारण, इनको अलग-अलग नाम से देव के रुप में माना जाता है।
आज पेंड्रावन विश्रामपूरी में, झिटकु-मिटकी के प्रेम कहानी के कारण मड़ई मेला का आयोजन किया जाता है। हमारे छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिला के पेंड्रा नामक गांव में भी माई पेंड्रारानी के नाम से सेवा-मान दिया जाता है। झिटकु को सुकल देव और खोड़िया देव के रुप में और मिटकी को अपने क्षेत्र में माई पेंड्रावाडिन, गप्पावाली या गप्पाघासीन और बूढ़ीमाई के नाम से सेवा दिया जाता है। परंपरागत घर के कोठा, जहाँ गाय-बैल रखते हैं, वहाँ खोड़िया देव का सेवा अर्जी किया जाता है।
आजकल लया (लड़की) लोग कमर में बांस के बने टोकरी नुमा गप्पा और साबर को आज भी पकड़े रहते हैं। वैसे ही लयोर (लड़का) लोग मांदर, ढोल और फरसा पकड़ के रेला-पाटा नाचते गाते हैं। बस्तर अंचल के हर कला-संस्कृति कार्यकर्मों में ज्यादातर झिटकू-मिटकी के ही मोमेंटो (तुर्रा में बने मूर्ति) ही चलन में हैं। कोई भी गतिविधि हो, सम्मान के रूप में अगर कोइ भेंट दिया जाता है, तो ज्यादातर झिटकू-मिटकी का मोमेंटो ही दिया जाता है। मोमेंटो, मूर्ति कला-संस्कृति के साथ-साथ रोजगार का भी जरिया बन गया है। मूर्ति बनाने की इस कला को डोकरा-डोकरी आर्ट्स भी कहा जाता है।
आजकल, कांसा-पीतल के बने मूर्ति देखने को मिलते हैं। हमारे राष्ट्रपति भवन में भी ‘झिटकु-मिटकी’ की बनी मूर्ती, वहाँ की शोभा को बढ़ा रही है। जिससे, इनकी प्रेम-कहानी की चर्चा देश-विदेश में भी हो रही है, साथ ही हमारे छत्तीसगढ की आदिवासी संस्कृति को अलग पहचान दे रही है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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