नितेश कु. महतो द्वारा संपादित
छत्तीसगढ़ में रतनजोत का पौधा पूरे राज्य में लगवाया गया था। माननीय पूर्व प्रधानमंत्री जी ने बायोडीजल बनवाने के लिए, रतनजोत के पौधों को एक एजेंसी के माध्यम से लगभग सभी जिले के प्रत्येक गांव में लगवाए थे।
ऊनडा गांव, गरियाबंद के रहने वाले आनंद कुमार जी ने बताया कि रतनजोत पौधे को छत्तीसगढ़ में बकरणडा बोला जाता है। आनंद जी के गांव में भी यह पौधा लगाया गया है। उनका कहना है कि यह पौधा तालाब के किनारे, घरों के बाड़ी में, सड़क के किनारे, स्कूलों आदि जगह पर कहीं भी लगाया जा सकता है।
"इस पौधे की ऊंचाई कम होती है लेकिन इसका फल काफ़ी जहरीला होता है। इसका उपयोग तब किया जाता है जब इसके बीज पेड़ पर ही पक कर तैयार हो जाते हैं। रतनजोत का उपयोग बहुत कम मात्रा में किया जाता रहा है, आदिमानव भी इसे अपने उपयोग में लाया करते थे।"
रतनजोत का पौधा कैसे उपयोग में लाते हैं और कब करना चाहिए?
आनंद जी ने बताया कि रतनजोत के पौधा उनके गांव में काफ़ी सालों से लगा हुआ है। उन्होंने यह भी बताया कि "अभी रतनजोत का उपयोग नहीं कर रहे हैं, लेकिन पुराने जमाने में आदिमानव तथा हमारे दादा परदादा इस रतनजोत के फल का काफ़ी उपयोग करते थे। "
अंधेरा होने पर इसके सूखे बीजों को इकठ्ठा करके उसमें आग लगाकर उजाला किया जाता था। आनंद जी ने कहा की यह डीजल बनाने का काम आता है लेकिन अगर कोई बच्चा इसे खा ले तो जहर के समान है, इसीलिए सावधानी बरतनी चाहिए और हमें इसके बीज को नहीं खाना चाहिए।
जब इसके बीज पूरी तरह से पक कर तैयार हो जाते हैं तब यह बायो डीजल बनाने के काम आते हैं। रतनजोत के ये पौधे छत्तीसगढ़ में बहुतायत में हैं लेकिन इसका उपयोग बहुत कम मात्रा में हो रहा है। इसके फल फायदे के हैं, परन्तु सही उपयोग नहीं होने के वजह से यह पक कर नीचे गिर जा रहे हैं और कचड़ा बन खराब हो जा रहे हैं।
गाँव के एक और निवासी, चैन सिंह ने बताया की रतनजोत के पत्तियों को आयुर्वेदिक इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता था, "पुराने जमाने में हमारे दादा परदादा लोग इसके पत्तियों का उपयोग दवाई के रूप में करते थे। जब भी मुहँ में छाले पड़ जाते हैं और खाने में असुविधा होती है तब इसके पत्तियों का पेस्ट बनाकर छालों में लगाने से राहत मिलती है। परंतु अब इसके पत्तियों का उपयोग भी नहीं के बराबर ही किया जाता है।"
सर्कार ने बड़े ही जोर-शोर से रतनजोत के पौधे लगवाए लेकिन बायो-डीजल का उत्पादन नहीं हो पाया।
यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अन्तर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog Samaj Sevi Sanstha और Misereor का सहयोग है l
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