पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
हर इंसान चाहता है कि वह कभी बीमार ना हो। किन्तु, लाखों प्रयास के बावजूद कभी-न-कभी उनकी छोटी सी भूल के कारण, बीमार पड़ ही जाते हैं। लेकिन आधुनिक काल में, हर प्रकार के रोगों का उपचार वैज्ञानिक तरीके से, हॉस्पिटल तथा डॉक्टरों के पास मौजूद है। परन्तु, आज भी ऐसे कई आदिवासी गांव हैं, जहां हॉस्पिटल नहीं हैं। और आस-पास में कोई डॉक्टर भी नही है। ऐसे बिहड़ जंगलों में रहते हुए भी, आदिवासी अपना जीवन व्यतीत कर लेते हैं। क्योंकि, उन्हीं आदिवासीयों में से कई ऐसे ज्ञानी पुरुष और महिला होते हैं, जो रोगों को पहचान कर, वनों मे पाये जाने वाले, जड़ी-बूटियों की सहायता से, उपचार करने में सक्षम होते हैं।
आइये जानते हैं, छत्तीसगढ़ के ऊर्जाधानि कहलाने वाली, कोरबा जिला के अंतर्गत, ग्राम रिंगनियां में रहने वाली श्रीमती भिनसरो बाई के बारे में, जो अपने हुनर से, पेट के अंदर होने वाली बीमारीयों को पहचान कर,उसकी सफलतापूर्वक उपचार करती हैं। भिनसरो बाई जी का जन्म, ग्राम रिंगनियां में ही सन 1948 ई. में हुआ था। उनके बचपन के समय, स्कूल न होने की वजह से, ये निरक्षर रहीं।
बचपन से ही, इन्हें दुसरों की मदद करना पसंद था। इनकी शादी अपने गांव में ही हुई। इनके पति हरिचरण भी अनेकों औषधि के ज्ञाता थे। इनकी सासु-माँ, उस समय बहुत अच्छी, रोगों की पहचान करने वाली महिला थी। उनके पास दूर-दूर से लोग आते थे। पेट की बीमारी को, दो-तीन दिन, 15 से 20 मिनट मालिश कर हर प्रकार के रोगों को पहचान लेती थी। इनके तीन पुत्र थे। जिसमें से हरिचरण सबसे छोटा था। और इस गांव की परम्परा है, कि माता-पिता छोटे बेटे के साथ रहते हैं ।
वह जब भी मालिश करती, भिनसरो बाई से, तेल-घी आग की छेना, मरीज के पास रखने को बोलती। धीरे-धीरे वह भिनसरो बाई को मालिश कर, रोगों को पहचानने सिखाने लगी, और सफल भी हो गई। सासु-मां के गुजर जाने के बाद, लोग इनके पास आने लगे। वह सभी प्रकार के पेट के रोगों को समझ गई थी, और अपने पति से दवाई को भी जान चुकी थी। फिर उनके पति भी गुजर गये। आज उनके ही नहीं, बल्कि, दूसरे गांव के लोग भी इनके पास इलाज के लिये आते हैं। भिनसरो बाई को यहां के लोग, धरसा के नाम से जानते हैं। चूँकि, ये लोगों की बिमारियों को पहचान कर, उपचार करती हैं। और यह, उपचार के बदले, सिर्फ़ एक नारियल ही लेती हैं। कई लोग बीमारी से ठीक हो जाने पर, उनके लिए उपयोगी समान जैसे :- साड़ी, शक्कर,चायपत्ति आदि ले आते हैं।
भगवन सिंह बिंझवार ने बताया, मेरे छोटे बेटे के पेट में दर्द होता था। तथा खाना-पीना बहुत कम खाता था। और हर रोज बुखार रहता था। डॉक्टर से, सुई लगवाने पर, बुखार चला जाता था। लेकिन दो-तीन दिन में, फिर से शुरु हो जाता था। फिर मैं, पत्नी से कहकर, धरसा जी के पास जाने के लिए बोला। दो-तीन दिन पेट में, मालिश करने के बाद, बताया कि मेरे बेटे के पेट में, फोत्तकि नामक रोग है। फिर उन्होंने, जंगली जड़ी-बुटियों से तैयार कर दवाई दी। एक सप्ताह सेवन करने के पश्चात, मेरा पुत्र ठीक हो गया। अब वह पुरी तरह स्वस्थ है और स्कूल जाता है।
बिहड़ जंगलों में रहने वाले आदिवासी, कई घातक बीमारीयों का उपचार, वनोपज से मिलने वाली औषधियों से करते हैं। परन्तु, चिंता की विषय यह है कि आधुनिक समय में, वनों के निरंतर घटने से, कई प्रकार के जड़ी-बूटी, विलुप्ति के कागर में हैं। जिन्हें, संरक्षण की आवश्यकता है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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