आप सभी जानते हैं कि गाँवों में शहरों के तुलना में पेड़-पौधे ज़्यादा पाए जाते हैं। ये पेड़-पौधे ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए बहुत ही उपयोगी होते हैं । यह आज की बात नहीं है, मनुष्य सदियों से पेड़-पौधों और वन में पाए जाने वाले वस्तुओं पर निर्भर रहा है। समय के साथ जहाँ शहरों में टेक्नॉलजी पर निर्भरता बढ़ी चली जा रही है वहीं गाँवों में लोग अभी भी पेड़-पौधों से ही अपना गुज़ारा करते हैं। वे पेड़ों से प्राप्त फल, फूल, पत्ते, लकड़ी इत्यादि का उपयोग करते हैं। कुछ भी नष्ट नहीं होने देते। कोरोना-काल में यह देखा गया है कि रोज़गार के अवसर कम हो गए हैं। इस कारणवश गाँव के लोग जंगलों और पेड़-पौधों पर और भी अधिक निर्भर हो गए हैं।
इन्हीं पेड़ों में से एक है चार का पेड़। इस वृक्ष के फल को कई नामों से जाना जाता है। इसे चार, अचार और चिरौंजी भी कहते हैं। आदिवासी क्षेत्रों में यह रोका के नाम से प्रचलित है। चार की पैदावार मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के गाँवों में अधिक है। आदिवासी क्षेत्रों में चार के बीज को चिरौंजी कहा जाता है। गोंडी आदिवासी इस वृक्ष को चार, पयाल रोका और चारोली भी कहते हैं। चार का वृक्ष १५-२० फ़ीट ऊँचा होता है। और इसका बीज कठोर होता है।
चार का यह फल गाँव के आदिवासियों के लिए और गाँव के आर्थिक समृद्धि के लिए कितना कारगर है जानने के लिए हमने गाँव के कुछ लोगों से बात की। गाँव के एक व्यक्ति शिव सेवक जी ने हमें वनोपज समिति के बारे में बताया। पैंतालिस वर्षीय शिव सेवक जी, जो वनोपज में एक प्रेरक का काम करते हैं, उन्होंने बताया कि चार का फल, तेंदू का फल और कई प्रकार के फल जो जंगलों में पाए जाते हैं, उन्हें वनोपज समिति में बेचा जाता है। इससे गाँव वालों को बोनस मिलता है जो उनके लिए बहुत लाभदायक है।
हमने गाँव में रहने वाले कई लोगों से बात की। उन्होंने बताया की तालाबंदी के कारण वे बाहर का कुछ काम नहीं कर रहे हैं। वे अपना अधिकतम समय जंगलों में व्यतीत कर रहे हैं।
अभी गर्मी के मौसम में पेड़ों पर कई फल लगे हैं। वे उन्हें तोड़ने जाते हैं और शाम को सीधा घर वापस आते हैं। उन्होंने बताया कि कुछ दिनों पहले महुआ के फूल लगे थे, जिसे उन्होंने इकठ्ठा कर लिया है। हालाँकि पिछले साल की अपेक्षा इस बार कम प्राप्त हुआ है। बात-चीत से यह पता चला की अभी चार का फल पेड़ों पे लगा हुआ है, जिसका कई महीनों तक देख-रेख किया जाएगा।
वे चार के फलों को पेड़ पे ही पकने देते हैं। पकने के बाद फल को तोड कर वे घर ले आते हैं, उसे खाते हैं और उसके बीज को बेचते हैं। बीज से अच्छी आमदनी भी मिल जाती है। ये तो वही बात हुई के आम के आम और गुठलियों के दाम। कभी-कभी चार के बीज से मिठाई भी बनाई जाती है। कहीं-कहीं चार के बीज से तेल भी निकाला जाता है। यह फल सभी प्रकार से फ़ायदेमंद है। इस फल से किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं होता। लेकिन इस फल को गाँव के निवासी ही ज़्यादा आसानी से प्रयोग में ला पाते हैं। गाँव के लोगों ने यह भी बताया कि इस साल कुछ क्षेत्रों में चार की पैदावार ज़्यादा हुई है तो कहीं कम हुई है।
बड़े-बड़े कारखानों में चार के बीज का प्रयोग
हमने एक महिला सुख कुंवर से चार के बीज के बारे में कुछ जानकारी ली। उन्होंने हमें बताया कि वो एक फैक्ट्री में काम करने जाती है जहाँ चार के छिलके को मशीन के द्वारा अलग किया जाता और उस बीज के अंदर के भाग, जिसे कई आदिवासी क्षेत्रों में चिरौंजी कहा जाता है, उसे अलग किया जाता है। इस काम को करने के लिए फैक्ट्री में लगभग दस लोग होते है। उन्होंने हमें यह भी बताया कि उस बीज को मिठाई बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
कैसे चार के द्वारा हो रही है आमदनी में बढ़ोतरी
गाँव के लोग चार के फल को गर्मी के दिनों में इकट्ठा कर पूरे साल भर के लिए उपयोग में लाते हैं। इस समय गाँव के लोगों ने चार के बीज इकट्ठा करना शुरू कर दिया है। इस समय चार या पयाल का बीज 109 रुपए प्रति किलो में खरिदा जा रहा है।चार का फल भी वनोपज के अंतर्गत आता है। चार का बीज दुकानों या वनोपज समिति के द्वारा खरिदा जाता है, जिससे गाँव के लोगों को अच्छा दाम मिलता है। अभी गाँव में जितने भी चीजों की बिक्री हो रही है, उन सब चीजों के लिए कार्ड भी बनाया गया है। इस तरीके से यह पता चलता है कि कौन कितना किलो बीज बेच रहा है। इसी हिसाब से लोगों को पैसा दिया जाता है। गाँव वालों ने बताया कि अभी बीज इकट्ठा करने की प्रक्रिया चल रही है। इन्हें इकट्ठा करने में लगभग दो महीने लग जाएंगे क्योंकि बीज को सुखाना भी पड़ता है। बीज के सूख जाने के बाद ही उसे बेचा जाता है। एक चार के पेड़ से लगभग 20 से 25 किलो फल निकलता है। तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं की 20 से 25 किलो बेचने से लोग कितनी आमदनी कर सकते हैं।
इसके फल को बड़े-बड़े फैक्ट्रियों में बेचा जाता है।
चार कि खेती देश के किन क्षेत्रों में की जाती है
चार या चारोली वृक्ष की खेती दक्षिण भारत और उड़ीसा में की जाती है। इसकी खेती मध्यल को इकट्ठा कर प्रयोग में लाया जाता हैं। गाँव के आदिवासियों को पूरी छूट है कि वे जंगल से उपयोगी फलों को ला कर बेच सकते हैं, जैसे की सराय, तेंदू, चार का फल इत्यादि। ये सभी फल वनोपज के अंतर्गत आते हैं। इन फलों को बेचकर गाँव के आदिवासी अच्छे पैसे भी कमा लेते हैं।
जंगलों का संरक्षण क्यों ज़रूरी है
हम सब ने इस लेख के ज़रिए जाना कि जंगल और पेड़-पौधे हमें कितना फ़ायदा पहुँचते हैं। ख़ासकर इस तालाबंदी की स्थिति में जंगलों ने हमें बहुत सहारा दिया है। अगर यह कहा जाए कि आदिवासियों के एक समय का खाना जंगल से प्राप्त होता है तो यह ग़लत नहीं होगा। हालाँकि चार जैसे फलों की पैदावार अधिक है, पर इनके पेड़ भी धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं। इस तालाबंदी की स्थिति में एकमात्र सहारा सिर्फ पेड़-पौधे ही हैं। अगर पेड़-पौधे नहीं होते तो कोरोना-काल में गाँवों की स्थिति और भी भयावह हो सकती थी। इसलिए हमें ज्यादा से ज्यादा पेड़-पौधे लगाने चाहिए और वनों का संरक्षण करना चाहिए।
यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अन्तर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog Samaj Sevi Sanstha और Misereor का सहयोग है l
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