भारत में गर्मी के महीने भीषण कठोर होते हैं। सूरज की किरणे बहुत तेज होती हैं और बाहर काम करना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में देश के कई आदिवासी समुदायों ने धुप से बचने के लिए अलग अलग किसम के टोपियां बनायीं हैं। झापी नामक एक प्रकार की रंगीन टोपी असम में बनाई जाती है। किसान अपने खेतों में काम करते समय इसे अपने सिर पर पहनते हैं। ठीक उसी तरह, छत्तीसगढ़ के आदिवासी अपने सिर पर शंकुधारी टोपी पहनते हैं। यह बांस से बना है और किसानों को धूप से बचाने में मदद करता है।
आज हम गंगा राम से टोपी बनाने के बारे में जानेंगे जो बुनकरों के परिवार से आता है। गंगा राम कोरिया जिले के ग्राम लेंगा से हैं। गंगा ने अपने दादा जी, गोकुल प्रसाद, से १५ वर्ष की उम्र में बांस का बर्तन बनाना सिखना शुरु किया । गोकुल प्रसाद एक जाने-माने मिस्त्री थे। एक माह में गंगा ने अपने दादा जी से कई प्रकार के बर्तन बनाना सिख लिया । इस तरह, गंगा 6-17 की उम्र में ही, बहुत बड़े मिस्त्री बन गये। लेकिन दुर्भाग्य से, गंगा के काम सीखने के तुरंत बाद, उनके दादा का निधन हो गया। इस असामयिक मृत्यु से गंगा बहुत दुखी हुआ क्योंकि वह अपने दादा के बहुत करीब थे। आज, गंगा खुद एक कुशल बढ़ई बन गई है और बांस के साथ बर्तन और अन्य सामान बनाता है।
बांस शिल्प यानि बांस से बनी कलात्मक वस्तुए। पहले के आदिवासी जंगल से बांस लाते थे लेकिन पिछले कुछ समय से जंगल से बांस इकट्ठा करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इसके कारण आज के युवा को बांस की कला नहीं आती है।
टोपी बनाने का तरिका
सबसे पहले टोपी बनाने के लिए इन्होने कुल्हाडी से 10 फीट का बांस लिया और उसे दो हिस्सों में काटा। एक हिस्सा 6 फ़ीट का है और दूसरा 4 फ़ीट का। 6 फ़ीट के बांस से गंगा दो टोपियाँ बना सकता है। चार फिट बांस जो बचा है उसे बाद में नरी बानाकर लगाते हैं।
6 फिट को दो भाग कर तीन-तीन फिट का बना दिया जाता है। फिर उस बांस को कुल्हाड़ी की मदद से फाड़ कर स्ट्रिप्स बना दिया जाता है। उसको फिर छुरी से सोटाइ करते हैं, जिसको स्थानीय भाषा में दिव्नी कहते हैं। उस दिव्नी को छुरी से पतला-पतला फाड़ कर सोटाइ किया जाता है जिसे नैरी कहते हैं।
फिर उस नैरी से खोमरी टोपी बनाते हैं। इसमे दो खोमरी टोपी बनाना पड़ता है,पहला टोपी के ऊपर दुसरी वाली टोपी को लगाया जाता है। इसके अन्दर मे मोहलाइन के पत्ते बिछा दिया जाता है। इसके कारण बारिश के दौरान सिर गीला नहीं होता है। इस टोपी के पांच कोन बनता है। आदिवासियो के अनुसार ये टोपी हिरण के पीठ के डिजाईन जैसे दिखता है, इसलिए इस टोपी का नाम चीतल टोपी है।
इस चीतल टोपी का उपयोग अधिकतर गाँव के बुजुर्ग लोग करते हैं। इसका उपयोग गर्मी और बरसात के दोनों में करते हैं।
यह आलेख आदिवासी आवाज़ प्रोजेक्ट के अंतर्गत मिजेरियोर और प्रयोग समाज सेवी संस्था के सहयोग से तैयार किया गया है।
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