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Writer's pictureMadhu Dhurve

क्या मध्य प्रदेश के विमुक्त जनजातियों के लोग आज भी अतीत के एक अन्यायपूर्ण कानून का बोझ उठा रहे हैं?

अंग्रेजों ने ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871’ नाम का एक बेहद अमानवीय कानून बनाया। इसके तहत कई घुमंतू (nomadic) जनजातियों को 'वंशानुगत अपराधी प्रवृत्ति' और 'पारंपरिक रूप से गैर-जमानती अपराधों के आदी' ('addicted to systematic commission of non-bailable offences') बताया गया। इन समुदायों के बच्चों को जन्म के साथ ही अपराधी तय कर दिया गया। अंग्रेजों के साथ ही देश के अन्य समाज के लोग भी इनके साथ अत्याचार करते रहे।


संविधान को अपनाने के बाद 1952 में 'आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871' को निरस्त कर दिया गया। लेकिन कानून में बदलाव के बावजूद इन जनजाति के लोगों को न्याय नहीं मिला। पुलिस, अदालतें और समाज आज भी विमुक्त (Denotified Tribes) जनजातियों के लोगों को अपराधी के रूप में देखते हैं। यही नहीं, कई जनजातियाँ अपने जनजाति होने के प्रमाण पत्र और भूमि अधिकारों के लिए लड़ने के लिए मजबूर हैं।

विमुक्त समुदायों के लोग साल में कई बार मिलते हैं ताकि वे अपने अधिकारों को प्राप्त कर सकें और एक सम्मानजनक जीवन जी सकें

भोपाल स्थित आपराधिक न्याय और पुलिस जवाबदेही परियोजना (Criminal Justice and Police Accountability Project) के एक अध्ययन के अनुसार, हर साल मध्य प्रदेश के भोपाल, रायसेन और सीहोर जिलों में पारधी समुदाय के सैकड़ों लोग पुलिस और वर्चस्ववादी जातियों दोनों के हाथों जाति आधारित हिंसा का शिकार होते हैं। इन सब मामलों पर बात करने के लिए हर साल DNT जनजातियों का कार्यक्रम होता है जहाँ वे एकजुट होकर अपने मुद्दों पर चर्चा करते हैं। पारधी जनजाति के लोग बहुत पीड़ित हैं क्योंकि वे एससी / एसटी कानूनों के तहत संरक्षित नहीं हैं। आदिवासी होने के बावजूद 2002 में उनका नाम सूची से हटा दिया गया था। इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि आबकारी कानूनों, वन्यजीव संरक्षण कानूनों, मवेशी वध निषेध कानूनों आदि के कारण कई समुदाय के पारंपरिक व्यवसायों को अब भी सरकारों द्वारा अपराध की श्रेणी में रखने का काम किया जा रहा है।


इन में से कुछ समुदायों के नाम हैं कंजर समुदाय, बेड़िया समुदाय सपेरा, बांछड़ा, पारदी इत्यादि। ये समुदाय सदियों से जंगल से जुड़कर काम करते थे लेकिन जैसे जैसे भारत के अन्य क्षेत्रों में बदलाव हुए इनके जीवन में भी बदलाव हुए। इन बदलावों के कारण उनके पुश्तैनी काम छूट गए।


इन समुदायों के लोग साल में कई बार मिलते हैं ताकि वे अपने अधिकारों को प्राप्त कर सकें और एक सम्मानजनक जीवन जी सकें। मैंने जनवरी में एक ऐसे कार्यक्रम का दौरा किया था जहाँ इन समुदायों के लोग भोपाल में मिले थे। मुझसे बातचीत के दौरान कई लोगों ने मुझे अपनी समस्याओं के बारे में बताया।


सीहोर जिले से सल्लू भाई पारदी ने बताया कि अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति समूहों की सूची से उनके जनजाति को हटाने के कारण लोगों को सरकार द्वारा चलाए जा रहे कल्याणकारी कार्यक्रमों का लाभ नहीं मिल पा रहा है। "हमारी जाति की बात कोई नहीं सुनते है। बच्चे पढ़कर कॉलेज तक पहुँच गए हैं लेकिन जाति प्रमाण पत्र अभी तक नहीं है। हमसे हमारा धंधा भी छुड़वा दिया गया। कोई भी सरकार मदद नहीं करती है। जाति प्रमाण पत्र बनवाने जाते हैं तो 50 साल का रिकॉर्ड मांगते हैं। आधे से ज्यादा जिंदगी हमने घूम-घूम कर बिता दी इस गाँव से उस गाँव, कहाँ से 50 साल का रिकॉर्ड लाएँगे। "


इसी तरह कंजर समुदाय से विजयराम नानोरिया ने बताया कि उन्हें पहले बिजोरी कहा जाता था, फिर उनका नाम बदलकर कंजर कर दिया गया। कुछ वर्षों के बाद उन्होंने खुद को घुमक्कड़ जनजातियों की श्रेणी में पाया और बाद में उन्हें विमुक्त जनजातियों के तहत रखा गया। उन्होंने कहा, "इतने बदलावों के चलते भी हमें आरक्षण नीति के तहत कभी कोई अधिकार नहीं दिया गया। जब कभी पुलिस किसी एक घटना के आधार पर पकड़ती है तो पूरे घर को तहस-नहस करके चली जाती है"।


इसी तरह कार्यक्रम में आए लोगों ने अपने समुदाय के बारे में बात करते हुए बहुत सारी गंभीर समस्याओं पर चर्चा की और सरकार के सामने मांग रखी कि पुलिस की ट्रेनिंग में पारियों और घुमक्कड़ समुदायों को अपराधी के रूप में दिखाना बंद करें। अंग्रेजों के समय से बोले जा रहे अपमानजनक शब्दों को बोलना बंद करें। डीएनटी समुदाय की स्थिति को सुधारने के लिए मध्य प्रदेश में जितने भी सुधार आयोग बने हैं उसे 5 पीढ़ियों तक रहने दे ना कि सिर्फ 2 साल के लिए चलाएँ। करीब 10-12 सालों से जाति प्रमाण पत्र के लिए लोग भटक रहे हैं, तो इस प्रक्रिया को सरकार आगे कैसे देखती है। समुदाय के लिए जाति प्रमाण पत्र बनेगा या नहीं यह सवाल भी सरकार से पूछना ।


समुदायों के लोगों का कहना था कि मध्य प्रदेश की सरकार हमें अलग-अलग जिलों में अलग-अलग विमुक्त जाति की श्रेणी में रखा है लेकिन सरकार जो भी मानें, हम आदिवासी हैं।


यह आलेख आदिवासी आवाज़ प्रोजेक्ट के अंतर्गत मिजेरियोर और प्रयोग समाज सेवी संस्था के सहयोग से तैयार किया गया है।

1 Comment


arpita shrivastava
arpita shrivastava
Apr 06, 2021

वंचित समुदायों की चिंता को तो सिरे से खारिज़ किया जाता रहा है बहुत कष्टकारी है इस तरह की रिपोर्ट पढ़ना.

इस तरह की सूचनाएं भी बहु-प्रसारित नहीं हैं. इनके बारे में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पता भी नहीं होता है.

शुक्रिया मधु!

अर्पिता


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