नशे के बारे में पूछे जाने पर बीए की पढ़ाई कर रहे एक आदिवासी युवक ने बताया कि "जब कोई व्यक्ति किसी चीज़ का आदि हो जाता है तो कहते हैं, व्यक्ति को उस चीज़ का नशा हो गया है।" आज मैं नशा शब्द के ऊपर इसलिए बात कर रहा हूं क्योंकि छत्तीसगढ़ के ही नहीं बल्कि सभी जगह के आदिवासियों की संस्कृति में उनके देवी-देवताओं के साथ जो एक चीज हमेशा से जुड़ी हुई है वह एक ऐसा पदार्थ है जिसके सेवन से व्यक्ति को नशा हो जाता है।
आदिवासी समुदाय की प्रशंसा पूरे विश्व में उसकी कला, संस्कृति और सभ्यता को लेकर होती है, लेकिन इन सबके साथ नशाखोरी भी एक काले साए की तरह जुड़ा हुआ है। आदिवासी समुदायों में हर देव कार्य पर महुआ दारू की भेंट हमारे देवी देवताओं को अर्पित किया जाता रहा है। इस कारण से हमारे समुदाय में मदिरापान करने वाले लोगों की संख्या भी देखने को मिल जाती है। आदिवासी परिवारों में बचपन से ही इस तरह का माहौल देखने को मिलता है कि हर त्योहार में शराब देखने को मिल जाती है और बचपन से बच्चों को बताया जाता है कि उनकी देवी देवताओं को मदिरा सेवन करना बहुत पसंद है इसलिए हर तीज त्योहार में हमारे देवी देवताओं को मदिरा अर्पित किया जाता है, जो कि शुद्ध महुआ के फूल से बनता है।
मैंने अपने गाँव में ही बहुत सारे आदिवासी बच्चों को देखा है जो अपने घर में अपने माता पिता के साथ ही मदिरा सेवन कर लेते हैं, क्योंकि बचपन में ही अगर बच्चा सो नहीं रहा है या बहुत ज्यादा रोता रहता है तो उसे महुआ का शराब एक उंगली में रखकर चटा दिया जाता है, जिससे बच्चा हल्की-हल्की नशे में सो जाता है। और आगे चलकर बच्चा इसी नशे का आदि हो जाता है।
अपने आदिवासी दिनचर्या से दूर जो गांव के बच्चे शहरों में पढ़ने गए उनसे हमने जब बात की तो मेरा पहला सवाल यही था कि नशा का आपके जीवन में क्या महत्व है तो सभी ने आदर्श छात्र की तरह पहले किताबी परिभाषाएं हमारे समक्ष रखा। "नशा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है हमे इससे दूर रहना चाहिए और हम भी नशा नहीं करते हैं", लेकिन थोड़ी देर हमने उनसे और बात किया तो वे हमें अपने खुद के नशा के बारे में बताने लगे। हमने कुछ स्पोर्ट्स हॉस्टल के बच्चों से बात किया तो उन्होंने अपने खेल के प्रति जो जुनून है उस नशा के बारे में बताया, उन्हें सिर्फ़ जीत का नशा होता है और वह अपने खेल के लिए ही जीते हैं। कुछ छात्रों को UPSC और CGPSC का नशा है।
लेकिन लॉकडाउन के दौरान बच्चे मोबाइल के चक्रव्यूह में ऐसा फंसे हैं कि अब वे इसकी आदि हो चुके हैं। मेरे गाँव में पांचवी तक का एक स्कूल है और उसी के सामने एक खेल का मैदान है, जहाँ स्कूल की छुट्टी होने के बाद सुबह शाम सभी लड़के लोग क्रिकेट खेलते हुए नजर आते थे लेकिन अभी लॉकडाउन के बाद से जब मैं उस मैदान में सुबह या शाम को जाता हूँ तो मुझे खेलने वाले बच्चे कम दिखते हैं, और स्कूल के गेट की सीढ़ी पर मुझे लड़के अपने मोबाइल के साथ बैठे हुए दिखाई देखते हैं, वे साथ में बैठे तो जरूर होते हैं लेकिन एक दूसरे से बातें कम और मोबाइल में ज्यादा घुसे हुए होते हैं, उनसे बात करने पर उन्होंने बताया कि हम लोग तो दिन में तीन से चार घण्टा गेम खेल लेते हैं और यह बताते हुए उन सभी बच्चों के चेहरे पर एक गर्व करने वाली मुस्कुराहट भी नजर आ रही थी। उनके लिए मोबाइल एक नशा है।
आदिवासी युवा धूम्रपान और मदिरापान बहुत तेज़ी से करने लगे हैं। सभी को पता है कि मदिरापान या धूम्रपान सेहत के लिए कितना हानिकारक होता है लेकिन जानते हुए भी लोग इसी में डूबे हुए दिखाई देते हैं। आदिवासी समुदायों में कई ऐसी जातियां भी हैं जिन्होंने अपने समाज में अपने युवकों को जागरूक करने के लिए मदिरापान पर रोक भी लगाई थी, मुझे एक युवक ने बताया कि जब वह मदिरापान करता था तो उसके गाँव कर एक बैठक में उसे बुलाया गया, उसे सभी के सामने खड़ा कर उसको एक नारियल के साथ शपथ दिलाया गया कि आज के बाद वह मदिरापान नहीं करेगा और सभी लोगों के बीच अपने आप को अकेला देख वह लड़का शर्मिंदा होने लगा और उसने अगले ही दिन से मदिरापान छोड़ दिया और आज वह एक नशे से मुक्त जीवन बिता रहा है।
व्यक्तिगत के साथ-साथ ऐसे ही सामाजिक तौर पर भी लोगों को अपने समाज को जागरूक करने के लिए इस तरह नशा मुक्ति अभियान चलाने चाहिए। और नशा सिर्फ़ खाने पीने को लेकर ही नहीं बल्कि मोबाइल जैसे चीज़ों का भी जिस तरह से हम आदि हो रहे हैं इस पर जागरूक करना अत्यधिक आवश्यक हो गया है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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