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Writer's pictureIshwar Kanwar

क्या आप जानते हैं बाँस पर खड़े होकर नाचे जाने वाले गेंड़ी नृत्य के बारे में?

एक नवंबर 2000 से छत्तीसगढ़ एक अलग राज्य है, गढ़ अर्थात किला, कहा जाता है कि कभी यहाँ 36 किले थे। अब छत्तीसगढ़ में 32 जिले हैं, और लगभग सभी जिले साहित्य, संगीत, कला आदि के क्षेत्र में अपने अलग विशेषताओं के साथ प्रसिद्ध हैं। छत्तीसगढ़ लोक कला का भी गढ़ है, और इन कलाओं में खेत, खार, पर्वत नदी, वन, उपवन सब समाहित हैं। इस राज्य के इतिहास में अनेकों ऐसे लोक कलाकार हुए हैं जिनकी कला की छाप देश विदेशों में मिलती हैं।


लोक कलाओं में लोक गीतों का अत्यधिक महत्व है, यहाँ के आदिवासी झूमते हुए लोकगीत गाते हैं और चाहे कोई भी अंचल हो हर जगह लोक गीतों में पुरूषों से ज़्यादा महिलाओं की भागीदारी होती है। ददरिया, सुआ, गौरा, भोजली, जवारा, करमा आदि कुछ लोकगीत हैं।


आदिवासी समुदाय लोक कलाओं के जरिये ही अपने पर्व त्योहारों को मनाते हैं। वैसे तो 42 आदिवासी समुदाय हैं पूरे छत्तीसगढ़ में और सभी के अनेक पर्व त्योहार हैं, ऐसे में यहाँ हम सिर्फ़ कुछ त्योहारों के जरिए लोक कलाओं के प्रयोग की एक झलक देखेंगे।


सुआ गीत एवं नृत्य:- छत्तीसगढ़ के कई आदिवासी समुदायों में सुआ गीत गाया जाता है। महिलाएं एक जैसी साड़ियाँ पहने घर घर जाकर गीत गाती हैं एवं नृत्य करती हैं। बाँस की टोकरी में धान भरकर इसके ऊपर सुआ यानी तोते की प्रतिमा को रखा जाता है और फ़िर उसके चारों ओर नृत्य एवं गान होता है। जिसके आँगन में नृत्य एवं गान होता है, उस घर के मुखिया द्वारा कुछ बख्शीश भी दिया जाता है।

आँगन में खड़ी होकर सुआ गाती महिलायें (फ़ोटो स्रोत - इंटरनेट)

राउत नाचा:- छत्तीसगढ़ के यदुवंशी(राउत,ग्वाला,गोपाल) समुदाय द्वारा यह नृत्य किया जाता है। हर साल गाँवों में लगने वाले मड़ई मेला के दौरान यह नृत्य होता है। माना जाता है कि इसकी शुरुआत द्वापर युग में हुई है, और तब से यह एक पारम्परिक नृत्य बन गया है। इस दौरान लोग अपने परिवार, समाज तथा देश बदलने की कविताएं भी गाते हैं। राउत नाचा में नाचने वाले सभी लोग एक जैसे वेश भूषा में रहते हैं, सबके माथे पर कलगी लगा होता है एवं हाथों में रुमाल लिए रहते हैं। राउत नाचा में एक साथ 15 से 20 लोग नाचते हैं।

रावत नाचा करते लोग (फ़ोटो स्रोत - इंटरनेट)

गेंड़ी नृत्य:- छत्तीसगढ़ में हरेली का त्योहार कई प्रान्तों में मनाया जाता है, इसी दौरान बाँस से बने लगभग 8 फुट लंबे लकड़ी को पकड़ कर लोग खड़े होते हैं, इसे ही गेंड़ी कहते हैं। इसी गेंड़ी पर खड़े होकर समूहों में नाचा जाता है, बाँस के चरमर की आवाज़ जब गीतों और वाद्य यंत्रों के ध्वनि से मिलती हैं तो एक अद्भुत संगीत का निर्माण होता है।

लकड़ियों पर खड़े होकर गेंड़ी नृत्य करते लोग (फ़ोटो स्रोत - इंटरनेट)

छत्तीसगढ़ के हर समुदाय के नाचने गाने का तरीका अलग है, एवं प्रत्येक पर्व में गीतों एवं नृत्यों के जरिए प्रकृति के प्रति आभार प्रकट किया जाता है। लोक कलाएँ एक तरह से आदिवासी इतिहास को दिखलाती हैं, आदिवासियों के नृत्यों एवं गीतों के जरिये उनके सम्पूर्ण संस्कृति को समझा जा सकता है।


कई हिस्सों में आधुनिकीकरण की वजह से लोग इन नाच-गानों को भूलकर अपने संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं, उनके बीच जागरूकता फैलाकर इन अद्भुत लोक कलाओं को बचाने की आवश्यकता है।


यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog samaj sevi sanstha और Misereor का सहयोग है l


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