सुकमा का ग्राम बुर्कापाल एक बार फिर से सुर्खियों में है, खबर है कि फर्जी मामलों में गिरफ्तार किए गए लगभग 121 निर्दोष ग्रामीण आदिवासियों को 15 जुलाई को हाईकोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद ससम्मान रिहा कर दिया गया है। जिससे नई चर्चा शुरू हो गई है, सुकमा जिले ही नहीं अपितु संपूर्ण छत्तीसगढ़ में, किसी एक नक्सल मामले में 126 निर्दोष लोगों को गिरफ्तार किए जाने और फिर 5 वर्ष बाद सभी को रिहा कर दिया जाना अपने आप में चर्चा का विषय है।
हालांकि बिना कोई आरोप तय हुए मुख्यधारा के प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर पहले ही निर्दोष ग्रामीणों को ही गुनाहगार मान लिया था और अपने अखबारों में बेगुनाह आदिवासियों की रिहाई को इस तरह से दिखाया गया कि तमाम 126 निर्दोष आदिवासी तयशुदा आरोपी हैं। जिससे वे आदिवासी अपने ही देश में दोहरे नागरिक की भांति जीवन जीने के लिए मजबूर हैं।
यह पहली बार नही हैं जब पारंपरिक मीडिया ने इस तरह का दोहरा व्यवहार किया है, आदिवासी समुदाय से आने वाले बुद्धिजीवी बताते हैं कि जब भी पुलिस और नक्सली हिंसा होती हैं तो मिडिया केवल एकतरफा बयान लेती है और बिना कोई जांच पड़ताल के निर्दोष ग्रामीणों को कसूरवार ठहराती है।
बस्तर संभाग में निकलने वाले तमाम अखबारों को देखें तो दंतेवाड़ा और सुकमा में प्रतिदिन फर्जी मामलों में किसी न किसी ग्रामीण की गिरफ़्तारी होती ही है। ऐसी खबरें गैर पारंपरिक मीडिया जैसे मोबाईल फोन और स्थानीय लोगों के बयान से पता चलता है। आखि़र हर बार बेगुनाह आदिवासियों के लिए न्याय की राह इतनी मुश्किल क्यों होती हैं?
दरअसल अप्रैल 2017 में सुकमा के बुर्कापाल गांव के पास पुल निर्माण कार्य की सुरक्षा में तैनात सीआरपीएफ जवानों पर हुए नक्सली हमले में पुलिस द्वारा जबरन आरोपी बनाए गए 121 आदिवासियों को एएनआई की विशेष अदालत द्वारा दोष मुक्त करार देने के बाद जेल से उनकी रिहाई हो गई। 5 साल 3 महीने बाद दंतेवाड़ा और केंद्रीय जेल जगदलपुर से रिहा होकर सभी सुकमा पहुंचे यहां उन्हें सीपीआई दफ्तर में ठहराया गया इसके बाद इस फैसले के बाद दंतेवाड़ा जेल से तीन और जगदलपुर केंद्रीय जेल से 118 लोगों को रिहा कर दिया गया। बचाव पक्ष के वकील बिचेम पोंदी ने बताया कि केस में एक महिला समेत कुल 122 लोगों को आरोपी बनाया गया था। निर्दोष ग्रामीणों को बड़ी राहत देते हुए उन्हें न्याय मिलने की बात कही बाकी 3 अन्य ग्रामीणों को किसी और मामले में संलिप्त होने के शक में रिहा नहीं किया गया है।
पुल निर्माण की सुरक्षा में तैनात सुरक्षा बलों पर हुए नक्सली हमले में 25 सीआरपीएफ जवानों की शहादत हुई थी, गंभीर मामले होने के बावजूद पुलिस ने इस पर संवेदनशीलता से कार्रवाई ना कर निर्दोष ग्रामीणों को जेल भेज दिया था। न्यायालय ने कहा कि कोई भी आरोप प्रमाणित नहीं करता कि ग्रामीण इस घटना में शामिल थे। दंतेवाड़ा न्यायालय के विशेष न्यायाधीश दीपक कुमार देशलहरे के इस फैसले को सर्व आदिवासी समाज ने न्यायपूर्ण और स्वागत योग्य बताया।
साथ ही सर्व आदिवासी समाज बस्तर संभाग के संभागीय अध्यक्ष प्रकाश ठाकुर ने प्रेस को जारी बयान में कहा कि "इससे यह स्पष्ट हो गया है कि बस्तर संभाग की पुलिस प्रशासन सुप्रीम कोर्ट द्वारा गिरफ्तारी पर अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य 2014 की गाइडलाइन को धड़ल्ले से अवज्ञा कर अवमानना किया गया है। उक्त गाइडलाइन की अवमानना के मामले में जिम्मेदार पुलिस अधिकारी कर्मचारियों की सजा तय की जाए, पुलिस की गैर जिम्मेदाराना कार्रवाई के कारण 121 आदिवासी परिवार 5 साल से मानसिक शारीरिक सामाजिक तथा आर्थिक रूप से प्रताड़ित हुई, कई परिवारों के बच्चों के मौलिक अधिकार शिक्षा से वंचित हो गए तथा कोर्ट कचहरी के चक्कर में आर्थिक परेशानी से प्रताड़ित हुए।"
ठाकुर ने आगे कहा कि "निर्दोष आदिवासी परिवारों को प्रति वर्ष दो लाख की दर से दस लाख का मुआवजा राज्य सरकार द्वारा प्रदान किया जाए और बुर्कापाल मुठभेड़ के आरोपियों की गिरफ्तारी की स्थिति गंभीर धाराओं में किया गया, अपने आप में गिरफ्तारी सिर्फ खानापूर्ति रह गई है क्योंकि यह हाईकोर्ट ने सुनवाई में पाया कि उनके खिलाफ पुलिस को एक भी सबूत नहीं मिला।" सर्व आदिवासी समाज ने कहा कि "हम मांग करते हैं कि पुलिस प्रशासन विधि संहिता गाइड का पालन करते हुए कार्रवाई करें लेकिन खानापूर्ति के लिए निर्दोष आदिवासियों को गिरफ्तार कर सजा ना दें।"
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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