मनोज कुजुर द्वारा सम्पादित
पुरूष प्रधान भारतीय समाज में जहाँ सदैव पुरूषों कि महानता, शौर्य गाथा एवं वीरता का बखान किया जाता है। वहीं गोंडवाना की महान रानी वीरांगना रानी दुर्गावती उन सबके मुंह में ताला लगाने का कम करती हैं। चलिए, आज हम उनके जीवन के विषय के बारे में जानने का प्रयास करते हैं। रानी दुर्गावती एक शौर्यशाली और पराक्रमी महिला थीं। उन्होंने अपने पति की मृत्यु के बाद अपने राज्य को संभाला और अपने राज्य की रक्षा के लिए कई युद्ध भी लड़ीं, और अन्त में राज्य की रक्षा के लिए मुगलों से भी लड़ीं। अपने राज्य की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुई। इनकी वीरता और साहस के सामने बड़े-बड़े राजा भी नहीं टिक पाए। इसलिए, गोंडवाना की महान रानी, वीरांगना रानी दुर्गावती का इतिहास में एक अलग ही वर्चस्व परिलक्षित होता है।
पति (दलपत शाह) की मृत्यु के बाद वे गोंडवाना राज्य की उत्तराधिकारी बनीं और लगभग 15 वर्षों तक गोंडवाना में शासन किया। माना जाता है कि रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर, सन् 1524 में एक प्रसिद्ध राजघराने, चंदन सम्राट के यहां चंदेल कालेंजर किले में हुआ था, जो वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित है। रानी दुर्गावती का नाम दुर्गावती रखने के पीछे भी एक कहानी प्रचलित है। कहा जाता है कि इनका जन्म कुंवार में नवरात्र के अष्टमी तिथि को हुआ था, जिसके कारण इनका नाम दुर्गावती रखा गया। रानी दुर्गावती अपने साहस, वीरता, पराक्रम, और सुंदरता के कारण बहुत प्रसिद्ध थी।
कहा जाता है कि बचपन से ही दुर्गावती को तलवारबाजी, तीरंदाजी और घुड़सवारी का बहुत शौक था। रानी दुर्गावती ने अपने पिता के सानिध्य और संगत में राजकाज की सभी गतिविधियों से अवगत हो चुकी थी। जब वह विवाह करने योग्य हो गई, तो उनके पिता ने एक उच्च कुल के योग्य वर की खोज शुरू की। हालांकि, रानी दलपत शाह से बेहद ही आकर्षित थी, वह दलपत शाह के वीरता और साहस से अत्यधिक प्रभावित थी और वह उनसे विवाह की इच्छा रखती थी। किंतु समस्या यह थी कि दलपत शाह एक अलग राजवंश से थे, जबकि दुर्गावती गोंड जनजाति की थीं, इसलिए उनके विवाह में काफी उतार-चढ़ाव आए।
कहते हैं कि दलपत शाह के पिता गढ़ मंडला के शासक थे। वे रानी दुर्गावती के शौर्य से बहुत प्रभावित थे और उन्हें अपनी पुत्रवधू के रूप में देखना चाहते थे। इसके बाद 1542 में दुर्गावती का विवाह दलपत शाह से कर दिया गया। विवाह के 4 साल बाद ही उनके पति दलपत शाह का निधन हो गया। उस समय रानी के गोद में 3 वर्ष का एक नन्हा बालक था।
पति की मृत्यु के पश्चात रानी ने खुद गद्दी पर बैठने का फैसला लिया। रानी दुर्गावती ने अपने शासनकाल में अपनी राजधानी को सिंगौरगढ़ किले से, जो वर्तमान में सिंगरामपुर है, चौरागढ़ किले में बदल दिया। उन्होंने खुद की एक सेना का निर्माण किया और इनके शासनकाल में गोडवाना सहित सारी प्रजा खुशहाल थी। मलवा के सुल्तान बाजबहादुर शाह को इनकी खुशहाली पसंद नहीं आई और उसने फिर उनके राज्य पर हमला करना शुरू कर दिया।
किंतु रानी के सैनिकों के सामने हार कर घुटने टेकने ही पड़े। तथ्यों से पता चलता है कि मुग़ल शासक अकबर भी रानी के गोंडवाना राज हथियाना चाहते थे, जिसके चलते अकबर ने अपने करीबी आसब खान को चढ़ाई के लिए भेज दिया। परंतु पहली बार में ही आसब खान को पराजय का स्वाद चखना पड़ा। उसके बाद भी आसब खान ने दूसरी दफा आक्रमण कर दिया। इस बार रानी के पास कम सैनिक होने के कारण रानी ने जबलपुर के आसपास मोर्चा लगाया और खुद भी पुरुषों के भेष में रणभूमि में उतर गई। उस दिन रानी के पुत्र नारायण भी युद्ध में शामिल था, किंतु नारायण के घायल होने पर रानी ने उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया और अपने मंत्री से कहा कि वह अपनी तलवार से उनका अंत कर दे, क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि कोई मुग़ल शासक या मुग़ल उनके जीते जी उन्हें स्पर्श करें। फिर रानी ने अपने ही तलवार से अपना सीना गोब कर आत्म बलिदान की ओर बढ़ गई।
साथियों, जबलपुर के उस स्थान का नाम बरेला है जहाँ यह ऐतिहासिक संग्राम हुआ था और जहाँ रानी दुर्गावती की समाधि स्थल स्थापित है। आज भी गोंड जनजाति के लोग उसे जाकर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। जबलपुर में उनके नाम का एक विश्वविद्यालय भी है जिसका नाम रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय है। रानी दुर्गावती के बलिदान और शौर्य को याद रखने के लिए छत्तीसगढ़ी ही नहीं, अपितु देश के विभिन्न राज्यों में 24 जून को आदिवासी गोंड समुदाय द्वारा रानी दुर्गावती शहादत दिवस के रूप में मनाया जाता है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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