पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
आदिवासी जिनको वर्तमान में अनुसूचित जनजाति के नाम से भी जाना जाता है। ये वो लोग हैं, जो प्राय: जंगलों में निवास करते हैं और प्रकृति से बहुत लगाव रखते हैं। ये शांत वातावरण में रहते हैं और सरल स्वभाव के भी होते हैं। आदिवासी अपने संस्कृति, कला और पहनावे आदि से बहुत चर्चित रहते हैं। भारतीय आदिवासियों का हर राज्य में अलग-अलग कला-संस्कृति देखने को मिलता है।
यह लेख भूतपूर्व मध्यप्रदेश में निवास करने वाले एक गरीब आदिवासी परिवार का है। जिसमें गरीबी के चलते परिवार के मुखिया को प्रवासी बन कर जीवन-यापन करने पर मजबूर होना पड़ा। क्योंकि, उनके क्षेत्र में गरीबी का स्तर इतना अधिक रहता था कि, रोजगार उपलब्ध नहीं हो पाता था। जिससे परिवार की स्थिति दयनीय हो गई थी। जिस कारण उदलसिंह धुर्वे रोजगार की तलाश में छत्तीसगढ़ जाने को मजबूर हुए। और गांव-गांव भटक कर अपने लिए रोजगार ढूंढते थे। लेकिन, उनको रोजगार मिलने पर भी आमदनी बहुत ही कम होती थी। जिसके कारण उन्हें बहुत सारे समस्याओं से गुजरना पड़ता था। फिर उन्होंने हस्तकला, जिसमें वो निपुण थे। उस कार्य को करने का आरंभ किया। जिससे उन्हें अच्छी-खासी आमदनी मिलने लगी। और धीरे-धीरे वह अपने निवास स्थान के आस-पास के गावों में अपने हस्तकला से जाने जाने लगे। और चार-पांच महीनो के बाद पुनः मध्यप्रदेश को लौट गए। और फिर वापिस आने के बाद छत्तीसगढ़ में ही रहने का फैसला लिया और अपने काम को आगे बढ़ाया।
उदल सिंह धुर्वे, एक ऐसे हस्तकला में निपुण थे। जिसमें वह तेल के खाली टीपों से बहुत सारे वस्तुओं का निर्माण करते हैं। जिनका उपयोग देखा जाए तो, गांव क्षेत्र में अत्यधिक करते हैं। क्योंकि, तेल के खाली टीपा, तेल खत्म होने के बाद बिना उपयोग के घर में पड़ा रहता है। जिनसे बहुत सारे वस्तुओं का निर्माण किया जा सकता है। जिनको घर में सामान रखने या प्रतिदिन उपयोग करने के काम में इस्तेमाल किया जाता है।
उदलसिंह के पड़ोसी गांव के लोग, अपने टिपों को लेकर आते हैं और उनसे उपयोगी वस्तुएं बनवाते हैं। जिसमें उदलसिंह बिना किसी लागत के अपने हाथों से उस टीपा को फाड़ कर डिजाइन देते हैं, जिनका निर्माण करना होता है। उदलसिंह द्वारा बनाए जाने वाले वस्तु एवं उनके रेट इस प्रकार हैं:- सुपा 50, चन्नी 50, पयेली 30, चावल रखने का डिब्बा 150, काठा 70, पेटी 300, कूलर 500, फूल डिजाइन 20 रुपए आदि।
उदल सिंह धुर्वे अपने हस्तकला में इतने माहिर हैं कि, गांव के लोग उनके पास खुद चल कर, वस्तुएं बनवाने के लिए आते हैं। उन्हें इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता है, वे एक ही स्थान पर रोजाना बैठते हैं और उसी स्थान पर गांव के लोग आते हैं। साथ ही राह चलते लोग भी उनसे समान बनाने का मोलभाव करते हैं और बनवाते भी है। उदल सिंह खाली समय में खाली टीपों को खुद खरीद कर लाते हैं और समान बनाते रहते हैं। क्योंकि, जिनके पास खाली टीपा नहीं रहता है, वे इन्हीं के खाली टीपों से वस्तुएं बनवाते हैं।
उदल सिंह मध्यप्रदेश में इतने दयनीय स्थिति से गुजरे रहे थे कि, वे अपने बच्चों की पढ़ाई नहीं करा पा रहे थे। क्योंकि, स्कूल भेजने के लिए पैसे नहीं जुटते थे। जिसके चलते इनके बच्चों को पढ़ाई छोड़ना पड़ा। वर्तमान में, उदल सिंह के दोनों बेटे इनके कार्य को सीख चुके हैं और इनके साथ अपना हाँथ भी बटाते हैं। इसके अलावा वे राइस मिल में पाइप बनाने का ठेका भी लेते हैं और तीनों एक साथ मिलकर आसपास के राइस मिलों में पाइप बनाते हैं। जिससे इनको अच्छी-खासी आमदनी हो जाती है। एक राइस मिल में इन्हें 30 से 35 हजार रूपए मिल जाते हैं। जिससे अब इनका घर अच्छे से चलता है।
उदल सिंह के बेटों का कहना है कि, भले ही उन लोगों ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी है। लेकिन, उनके बच्चे जो अभी छोटे हैं। उनको जरूर स्कूल भेजेंगे और उनकी पढ़ाई पूरा कंप्लीट करवाएंगे। उनकी पढ़ाई में पैसों की समस्या नहीं आएगी, जिस तरह उन लोगों के आगे समस्या बन कर आई थी।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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