पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
गोंडवाना लैण्ड के कोयावंशी कोयतुर समुदाय का अपना जीवन परब (पडुम) प्रकृति पर आधारित होती है और कोयातुरों के पडुम, पुर्ण रुप से कृषि प्रणाली से ही आरंभ होती है। कृषि सभ्यता कोयातुर गण्ड जीव की खोज थी। कोयातुर समुदाय की एक रिवाज रही है, और उन बहुल क्षेत्रों मे रुढ़िजन्य परम्परा पर आधारित है। कोयतुर जन की कोई भी पडुम हो वो प्रकृति को सेवा देते हुए मनाते हैं, जैसे बीज पडुम से लेकर उन सभी पर्व-त्यौहारों में संपूर्ण रुप में फसलों के बीज व फसलों के कटाई तक अपने देवी-देवताओं को सेवा अर्जी करते हैं। प्रकृति के प्रति अपार प्रेम-भाव आदिवासियों को महान बनाती है। परिणामस्वरूप प्रकृति से जो कुछ सीखा है या उसके पुरखों ने बताया है उसे आने वाले पीढ़ियों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करने का महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करती है।
जब खेतों में धान की फसल तैयार हो जाती है, और फिर उसे कटाई कर लाया जाता है, तो गांव में देवी-देवताओं की सेवा अर्जी की जाती है। इस समय गांवों में बैगा, भुमका और सयानो बहरी जैसे पेड़ों के टुकड़े काटे जाते हैं और उन्हें देवी-देवताओं के लिए अर्पित कर दिया जाता है। इसके बाद बहरी काटाई की शुरुआत होती है। गांवों में परंपरा के अनुसार, केवल बहरी काटने के बाद ही फसल काटी जाती है। बहरी का बुटा, घरों की साफ-सफाई के लिए भी उपयोगी होता है। छत्तीसगढ़ में, बहरी लगभग सभी जगहों पर मिलता है और इसके अलग-अलग प्रकार जैसे काटाबहरी, सील, फुल आदि भी मिलते हैं। ये बहरी जंगलों में खेतों के पगडंडियों में आसानी से मिल जाते हैं।
काफी अरसे बाद, मुझे बहरी बुनती हुई दो बुजुर्ग महिलाएं घरों में दिखाई दीं, जो घरों में खाली समय का सदुपयोग करके, सील बाहरी बनाने में बिता रही थीं। बहरी बनाने में, बुजुर्ग महिलाएं अनुभवी थीं और अपने हाथ से तेज़ी व आसानी से बना रही थीं। बहरी के एक-एक काड़ी को गाथ (बुना) रही थीं। बहरी (झाड़ू) को एक आकर्षण देना, वो कला की पहचान है। आमतौर पर, बहरी कई तरह से बनाई जाती हैं और अलग-अलग बहरी का अलग स्थानों पर अपना महत्व होता है। जैसे लोन (घर), देवगुड़ी, कोठार (बियारा), कोठा इन स्थानों पर कांटा बहरी का उपयोग, घर-दुवार और देवगुड़ी के लिए ज्यादातर फूल बहरी का उपयोग किया जाता है। बहरी का उपयोग, हर घर में होता है और इसकी मांग भी खूब रहती है। छत्तीसगढ़ के कई ऐसे जगहों पर, जहां महिला स्वयं सहायता समूहों द्वारा लघु कुटीर उद्योग संचालन हो रही है। अब नारायणपुर, अबुझमाड के शहरी इलाकों में, बहरी का अत्यधिक खपत हो रहा है।
बहरी बना रही महिलाओं से जब हमने जानना चाहा कि, बहरी बनाने के लिए वे क्या करते हैं? जवाब में उन्होंने बताया कि, बहरी की कटाई कर लाने के बाद, उसको अच्छी तरह से धुप में सुखाने के बाद बनाते हैं। जब बहरी को बनाने का समय होता है, तो उसमें पानी का छिड़काव करते हैं। ताकि, उसमें नरमता आये और बहरी (झाडु) बनाने में आसानी हो। उन्होंने आगे और बताया कि, सील बहरी अन्य बहरी से अलग होती है, ये मुलायम होती है और हाथ से चालाने में आसानी होती है। लेकिन, इस बहरी के पानी के संपर्क में आने पर, इसका टिकाऊपन, नमी के कारण समाप्त हो सकती है।
इस दौरान दो बुजुर्ग महिलाएं अपनी बहु को बहरी बनाने की कला सिखा रहीं थी और बहु भी बहरी को मन लागा कर बुन रही थी। ताकि, अपनी आने वाले पीढ़ी को, वह भी बहरी बनाने की कला को हस्तांतरित कर सके।
वर्तमान समय में, मार्केट व बाजारों में, कई तरह के झाड़ू देखने को मिलते हैं। मौजूदा समय में, गांव में, हाथों से बानाए जाने वाली झाड़ू मार्केट में कम देखने को मिलता है। अब गांवों में, बहरी बनाने वाले बहुत कम लोग दिखाई देते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि, मार्केट से रेडीमेड झाड़ू आसानी से मिलता है। जिसके चलते हाथ से बनी झाड़ू, सिर्फ गांव तक ही सिमट गयी है। उन बुजुर्ग महिलाओंं से बातचीत में पता चला कि, उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उन्होंने साझा किया कि, अब वे पहले की तरह आसानी से बहरी झाड़ू नहीं प्राप्त कर पाती हैं और इसके लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता होती है। और उसमें भी, कभी मिलता है, तो कभी नहीं मिलता है। बरसात के मौसम में, बहरी झाड़ू की उत्पादन अधिक होती है। इसलिए, उस वक़्त आसानी से मिल जाती है। एक दूसरा कारण, खुली मैदानों को खेत खलिहान बनाना है। जिसके वजह से, ये कम मात्रा में उपलब्ध हो पाती है।
छत्तीसगढ़ के सुदूर अंचल क्षेत्रों में, बहरी मिलता है और उन जगहों पर बहरी की कटाई, दिसंबर के माह में आरंभ हो जाता है। जैसे कि, अभी परसदा खुर्द गांव में धान की फसल की कटाई, सभी किसानों के कोठार में आ जाने के बाद, गांव के इष्ट पेन शक्तियों को कुकरी और बकरा देने का नेग व जोग किया गया। उसके अगले दिन ही बहरी कटाई आरंभ हुआ।
आज के परिवेश में, बढ़ती आधुनिकता लोगों को उन परम्परा व कला और संस्कृति से कहीं दुर न कर दे। हम आशा करते हैं कि, आने वाली पीढ़ी इन सभी रुढ़िजन्य आधारित परम्पराओं को न भुले और अपनी संस्कृति, कला और भाषा को अक्षुण्ण बनाए रखें।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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