पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
गोंड समुदाय में, गोंडवाना की बहुत सारी माताएं है, जिन्हें गोंड समुदाय अपने आराध्य देवी के रूप में मानते आए हैं। जिन्हें समय के साथ, आज पूरे छत्तीसगढ़ के आराध्य देवी की पहचान दी गई है। उदाहरण स्वरूप देखें, तो आज बस्तर की आराध्य देवी, मां दंतेश्वरी पूरे छत्तीसगढ़ की आराध्य देवी के रूप में मानी जाती है। इसी प्रकार ऐसी बहुत सारी गोड़वाना की बेटियां व माताएं हैं, जिन्हें गोंडवाना वंश ने तो अपने आराध्य देवी के रूप में माना ही है। लेकिन सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में भी उनकी कृपा-दृष्टि बनी रहे, इस कारण से पूरे छत्तीसगढ़ के लोग उन्हें माता का दर्जा देकर, मानते आए हैं। जिनमें से एक है मां बमलेश्वरी। जो छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव जिले के, डोंगरगढ़ में विराजमान है।
डोंगरगढ़, नागपुर-रायपुर रेल लाइन पर स्थित है। जो राजधानी रायपुर से 100 किलोमीटर पश्चिम दिशा में ऊंची पहाड़ियों वाली एक बस्ती है, जिसे डोंगरगढ़ कहा जाता है। डोंगर, द्रविड़ पूर्व गोंडी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ पहाड़ियों व जंगलों होता है। यह मंदिर, पहाड़ों के उपर बसा हुआ है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए हमें लगभग 1000 सीढ़ियां चढ़ने पड़ती है। अच्छी बात यह है कि, यह मंदिर पहले के समय में, गोंड समुदाय के लोगों द्वारा पूजा अर्चना किया जाता था। लेकिन, आज के आधुनिक युग में, इसे छत्तीसगढ़ शासन के द्वारा मान्यता मिली है और यह टूरिज्म बोर्ड के अंदर आता है। और यहां आपको बहुत सारी सुविधाएं भी मिलेंगी, जिनके सहारे से आप मंदिर तक आसानी से पहुंच सकते हैं। डोंगरगढ़ तक पहुंचने के लिए रेल सुविधा और बस सुविधा भी उपलब्ध है। पैदल यात्रियों के लिए भोजन की व्यवस्था के साथ ही यात्रियों के रुकने के लिए होटल की व्यवस्था भी है। यात्रियों को मंदिर ऊपर तक जाने के लिए, उड़न खटोला की भी सुविधा है।
अब आते हैं गुण माना कि, यह देवी कैसे पूरे छत्तीसगढ़ की आराध्य देवी के रूप में जानी जाती हैं। गोंड समुदाय के तथ्यों के अनुसार बताया जाता है कि, डोंगरगढ़ की बमलाई दाई, गिरोलागढ़ के सेवता, मरकाम गोत्रीय गोंड राजा की कन्या है। जो अपने सतकर्मों से बमलाई दाई के रूप में पूजी जाती हैं। डोंगरगढ़ में, बमलाई का प्रसिद्ध मेला, प्राचीन काल से पौष और चैत्र माह में प्रतिवर्ष लगता है। बमलाई दाई की ऐतिहासिक गाथा, आज भी प्राचीन गिरोलागढ़ के पास, अंबागढ़ चौकी और सेवता टोला परीक्षेत्र में है।
प्रचलित ऐतिहासिक गाथा के अनुसार, गिरोलागढ़ का प्राचीन नाम 'बेंदुला गढ़' था। जहां का राजा, लोहंडीगुड़ा सेवता मरकाम था। लोहंडीगुड़ा राजा की एक कोतमा नामक बड़ी बहन थी, जिसका विवाह बैहर लांजी के पास स्थित भीमलाट राज्य के, मोहभाटा गढ़ में, सईमाल मराई नामक राजा के राजकुमार भूरा पोय के साथ हुआ था। लोहंडीगुड़ा राजा की दो जुड़वा कन्याएं थी, एक का नाम बमलाई और दूसरी का नाम समलाई (तिलकाई) था। दोनों बहन के जवान हो जाने पर, उनके विवाह की चिंता राजा को होने लग गई थी। चूँकि, राजा को संतान के रूप में मात्र दो कन्याएं थी। पुत्र के नहीं होने पर, वह सोचने लगा कि, क्या कन्याओं के लिए घर-जमाई लाना उचित होगा। इसपर, कुछ सलाहगारों ने घर-जमाई लाने की सलाह राजा को दी। सोचते-सोचते ध्यान में आया कि, किसी पराए युवक को घर-जमाई बना कर ले आने से अच्छा है कि, रिश्तेदार के ही किसी योग्य पुत्र का चयन किया जाए।
रिश्तेदार का विचार आते ही राजा को, अपनी बड़ी बहन 'कोतमा' का ख्याल आया। जो बैहर लांजी राज्य के मोहभाटा मैं ब्याही गई थी। उसे 7 पुत्र और 5 कन्याएं थी। उनमें से ही किसी एक को, बड़ी बेटी बमलाई के लिए घर-जमाई बना कर लाने का राजा ने मन में सोचा और वह अपनी बहन के गांव रवाना हुआ। और वहां पहुंचकर अपनी बड़ी बेटी बमलाई के लिए, उसके ज्येष्ठ पुत्र को घर-जमाई बना कर ले जाने का प्रस्ताव, बहन के सामने रखा। (गोंड समुदाय में अपने बहन के बेटे या बेटी के साथ विवाह करने की प्रथा, हमेशा से चली आ रही है। जिसे सामान्यतः ममा फुफु नता (मामा बुआ रिश्ता) के रूप मे लेन-देन किया जाता है।)
अपने छोटे भाई का प्रस्ताव सुनकर, कोतमा को असीम खुशी हुई। शीघ्र ही उसने, राजा भूरा पोहे के समक्ष अपने भाई के प्रस्ताव को रखा। यह सुनकर राजा भुरा पोहे भी खुशी के मारे नाच उठा, उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र भीमाल पोय (भीमाल पेन) को बुलवाया और उसके मामा की ज्येष्ठ कन्या, बमलाई के लिए घर-जमाई बन कर जाने का आदेश दिया। लेकिन, भीमाल पोय के सामने कठिन समस्या खड़ी हो गई थी। चूँकि, उसने अपने गुरु महारूभूमका को वचन दिया था कि, वह अजीवन कुंवारा रहेगा। कोया वंशीय, गण्ड जीव, गोंड समुदाय की सेवा करेगा और अपने इस सेवा कार्य में वह जुड़ गया था। किंतु, अपने दाऊ-दाई (माता-पिता) के आज्ञा की अवहेलना करना भी उचित नहीं था। अतः समय की पुकार सुनकर, वह चुपचाप अपने दाऊ-दाई की आज्ञा का पालन कर अपने मामा के साथ गिरोलागढ़ चले गया।
गिरोला गढ़ पहुंचने पर, वहां दूसरी समस्या खड़ी हो गई। अपने मामा की ज्येष्ठ कन्या के लिए, वह घर-जमाई बन कर आया था। किंतु, वहां दोनों बहनों ने भीमाल पोय से विवाह करने की इच्छा जताई। उन दोनों बहनों ने, अपने दाउ के सामने प्रस्ताव रखा कि, उनका विवाह किसी एक ही युवक से किया जाए। चाहे फिर वह भीमाल पोय ही क्यों ना हो, इसमें उन दोनों का कोई दोष नहीं है। यह केवल प्रकृति के स्वभाव, गुणधर्म का प्रकृति का स्वभाव है कि, दो जुड़वा भाई-बहन की पसंद एक जैसी ही होती है।
लोहंडीगुड़ा राजा के सामने भीमा पोय को कैसे समझाया जाए, यह समस्या उपस्थित हो गई। वह सोच में डूब गया, भीमाल पोय तंदरी जोग अभ्यास में माहिर था। वह दूसरों के दिलों दिमाग में क्या चल रहा है, उसकी सूरत देखकर जान लेता था। राजा और उसकी दोनों कन्याओं के मन में क्या उत्तल-पुथल चल रही थी, वह सब जान गया था। अतः वह स्वयं आगे आकर अपने मामा जी से मिला और उनकी दुविधा का निराकरण, यह कह कर कर दिया कि, उसकी दोनों बेटियां एक ही युवक से विवाह करने की कामना रखती है। साथ ही कहा कि, यदि अनुमति मिल जाए तो वह इस समस्या को सुलझाने में कामयाब हो जाएगा। भीमाल पोय की बातें सुनकर, लोहंडीगुड़ा राजा का मन एकदम हल्का हो गया। उसे पूरा विश्वास हो गया कि, वह इस समस्या का समाधान अवश्य कर पाएगा। अतः उसने भीमाल पोय को अनुमति प्रदान की और जो उचित हो करने के लिए कहा।
अपने मामा के राजमहल में समय बिताने के बाद, एक दिन रात्रि के भोजन के पश्चात, भीमाल पोय ने दोनों बहनों के साथ राजमहल की बाग में टहलने की अपनी इच्छा जाहिर की। दोनों बहनें तुरंत तैयार हो गईं। वे तीनों थोड़ा समय टहलते हुए इधर-उधर की बातें करने के पश्चात, बाग में बैठ गए। और भीमाल पोय ने अपनी समस्या बताई कि, उसने कोया वंशीय गोंड समुदाय की सेवा करने के लिए, अजीवन कुंवारा रहने का अभिवचन अपने गुरु महारुभूमका को दे चुका है। किंतु, अपने दाऊ-दाई का आदेश पाकर। वह घर-जमाई बन कर यहां आया हुआ है। एक ओर गुरु को दिया गया अभीवचन का पालन उसे करना है, तो दूसरी ओर दाऊ-दाई के आदेश की अवहेलना भी नहीं कर सकता है। ऐसी स्थिति में उसे अपने विवेक से, अपना जीवन-मार्ग तय करने का निर्णय लेने के लिए बाध्य होना पड़ा।
भीमल पोय ने दोनों बहनों से कहा कि, एक दिन में 3 प्रहर होते हैं। सुबह पहटिया मुर्गे की बाग देने के समय से लेकर अपराह्न तक और अपराह्न से लेकर रात्रि के भोजनांत तक, इन दो प्रहरो में मेरे गुरु जी को दिया गया अभीवचन और दाउ-दाई के आदेश का पालन करने का निर्णय मैंने लिया है। और रात्रि के भोजनांत से लेकर सुबह मुर्गे की बाग देने के समय तक यह पति-पत्नी के साथ सांसारिक जीवन बिताने का प्रहर होता है। और अभी पति-पत्नी के सांसारिक जीवन का प्रारंभ हो चुका है। वह अभी इसी वक्त बड़ा देव और अपने गुरु जी का दर्शन लेने डोंगरगढ़ और वहां से बैहर लांजी जा रहा था। और यदि, तुम दोनों या दोनों में से जो भी सुबह मुर्गे की बाग देने के समय तक, उसके पीछे-पीछे आकर उसे आकर मिल लेती है। तो उसके साथ वह विवाह कर लेगा, अन्यथा जीवन भर कुंवारा ही रहेगा। इतना कह कर, वह उसी समय तेज गति से गिरोलागढ़ से डोंगरगढ़ की ओर निकल गया।
दोनों बहनें उस जाते हुए अक्का-बक्का देखते रह गई। कुछ क्षण पश्चात जब वे अपने साधारण स्थिति में आई, तो वे भी भीमाल पोय के पीछे निकल पड़ी। किंतु, तब तक भीमाल पोय बहुत दूर निकल चुका था। सर्वप्रथम भीमाल पोय डोंगरगढ़ गया और वहां के खोह में स्थित मरई (मंडावी) गोत्रजो में फड़ापेन (बड़ा देव) का दर्शन लेकर, बैहर लांजी की दिशा में महारुभूमका के दर्शनार्थ के लिए आगे बढ़ गया। हिम्मत एवं साहस कर, बमलाई और समलाई दोनों बहने डोंगरगढ़ पहुंची। वहां उन दोनों ने मरई गोत्रजो के बड़ा देव का दर्शन लिया और बमलाई के साहस ने आगे बढ़ने से जवाब दे दिया। वह वहीं बड़ादेव की खोह के पास बैठ गई। किंतु, समलाई भीमाल पोय के पीछे-पीछे आगे बढ़ गई। बैहर लांजी पहुंचकर, भीमाल पोय ने अपने दाउ-दाई का दर्शन लिया। किंतु, उसके गुरुजी महारुभूमका, अलीकट्टा कोट के शम्भू का दर्शन लेने, पेंच समदूर (नदी) के किनारे गए थे। जहां गोंड समुदाय के 'पंच खंड' धरती के राजा, शंभू शेख का ठाना (पता) है।
वर्तमान में वह कर्माझिरी अभयारण्य के भीतर है। इसके बाद भीमाल पोय ने अलीकट्टा कोट जाने का निर्णय लिया और वायु की गति से बैहर लांजी से निकल गया। लागुर बिगुर की पहाड़ियां पार कर, रमरमा होते हुए गायमुख आया और वहां से दाई अंबाराल का दर्शन लेने अंभोरा और बाद में भीमखोरी होते हुए, कन्हान नदी के किनारे पेंच समदूर जाकर, अपने गुरुजी महारुभुमका का दर्शन लेना इसलिए अनिवार्य था। क्योंकि, अपने माता-पिता के आदेश का परिपालन करने हेतु उसे अपने गुरु जी को दिए गए वचन से मुक्ति पाना था।
उधर समलाई दाई, जो भीमाल पोय के पीछे-पीछे चल रही थी। वह रमरमा आने के बाद रास्ता भटक गई। बड़े कठिनता से रमरमा भूमका से, उसने भीमाल पोय की जानकारी प्राप्त की और तीव्र गति से अंबाराल दाई के पास पहुंची। वह भी कन्हान नदी किनारे, एक छोटे से गांव में पहुंची। जहां उसे मुर्गे की बांग सुनाई दी। वह समझ गई की भीमाल पोय के मोह में वह अपने माता-पिता और राजपाट को त्याग कर उसके पीछे-पीछे चली आई है। वह वायु की गति से, एक गांव से दूसरे गांव जाकर लोगों की सेवा दिन-रात कर रहा है। इसलिए उसने भी उसी गांव में रहकर दीन-दुखियों की सेवा करना आरंभ कर दिया। मुर्गे की बांग सुनकर, वह वहीं ठहर गई। इसलिए लोगों ने उसे, कराड़ी दाई के नाम से संबोधित करना आरंभ किया। वैसे देखा जाए तो उसका मूल नाम तीलकाई ही था। किंतु, बमलाई की बहन समलाई के नाम से वह बचपन से ही विख्यात थी।
आज जिस गांव में समलाई दाई का ठाना है, वह गांव कोराड़ी नाम से जाना जाता है। वर्तमान में यहां नेशनल थर्मल पावर स्टेशन है। यह गांव नागपुर-छिंदवाड़ा मार्ग पर, नागपुर से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। आज भी लोग उसे गोंडो की देवी कहते हैं। उधर बमलाई दाई थक हार कर, डोंगरगढ़ में मराई गोत्रजो के बड़ादेव ठाना में ही बैठ गई। उसने अपने मन में ठान लिया कि, जिस मरई गोत्र का भीमाल पोय है, उसी गोत्र का बड़ा देव डोंगरगढ़ में स्थापित है। अतः उसी गोत्र के बड़ा देव की छत्रछाया में उसने शरण ले लिया और उसकी नित्य सेवा करने का मन में निर्धारित किया। उसने अपने मन में ही भीमाल पोय को वर मान लिया था। इस तरह वह मरई कुल की कुलवधू बन गई और बड़ादेव से आशीर्वाद लेकर कोया वंशीय गोंड समुदाय की सेवा में जुट गई।
गोंड़ समुदाय के लोग आज भी बमलाई दाई को डोंगरगढ़ के मरई गोत्रजो की कुलवधू मानते हैं। बमलाई दाई के मरणोपरांत डोंगरगढ़ में ही, उसकी समाधि बनायी गयी और उसकी मूरत बनाकर लोगों ने पूजा आरंभ कर दिया। जो वर्तमान में भी जारी है। डोंगरगढ़ में प्रतिवर्ष नवरात्रि चैत्र माह में बमलाई दाई का मेला लगता है, जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्धालु दर्शनार्थ पधारते हैं।
उधर भीमाल पोय, पेंच नदी स्थित, झंडी मेटटा (ऊंची पर्वत शिखर) में स्थापित हो गए। भीमाल पोय का यह स्थल नागपुर जिला के, वारासिवनी तहसील में, पेंच डैम के किनारे है। चैत्र माह की पूर्णिमा से, वहां 15 दिन का मेला लगता है। प्रतिवर्ष यहां भी, लाखों श्रद्धालु दर्शनार्थ पधारते हैं।
माँ बमलाई के बारे में, गोंड समुदाय के महान लेखक, श्री मोती रावेण कंगाली ने बड़े विस्तार से अपने पुस्तक (डोंगडगढ़ की बमलेश्वरी दाई) में लिखा है। मोती रावेण कंगाली जी का जीवन, गोंड समुदाय के इतिहास को, लिपि बद्ध करने के काम में निकल गया। उन्होंने, गोंड समुदाय के इतिहास और उत्पत्ति के बारे में शोध करके बहुत सारी किताबें लिखी हैं। और उनकी किताबों से, बहुत लोगों को अपने समुदाय, इतिहास, कला-संस्कृति और सभ्यता के बारे में जानने को मिला है। मोती रावेण कंगाली जी की कुछ किताबों के नाम :- बस्तर की दंतेश्वरी दाई, कोरोडीगढ़ की तिलकाई दाई, चन्दागढ़ की कंकालिन दाई आदि हैं।
आज भी आदिवासी समुदायों के बीच ये कहानियां, हमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनने को मिलती आ रहीं है। लेकिन, आधुनिक युग में विकास के नाम पर, इसे हिंदू धर्म से जोड़ दिया गया है। जबकी आज भी वहां गोंड आदिवासी समुदायों के इतिहास साफ दिखते हैं, जिसे धीरे-धीरे दबाया जा रहा है। इस कारण से आदिवासी समाज आवाज़ उठा रहे हैं। विगत साल, आदिवासी समुदाय द्वारा भव्य रूप से अपने देवी का सेवा गांगो (पूजा-अर्चना) किया गया था। इसी प्रकार गोंडी समुदाय के बहुत सारे ऐसे मंदिर है, जिन्हें समय के साथ-साथ उनको हिंदू धर्म से जोड़ा गया। परन्तु अब धीरे-धीरे आदिवासी समुदाय, अपने आराध्य देवी-देवताओं को, हिन्दुकरण के चंगुल से वापस ला रहे हैं।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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