पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
छत्तीसगढ़ प्रदेश वनों से भरा पड़ा है। यह प्राचीनकाल से ही वनों से समृद्ध क्षेत्र रहा है। राज्य के 44% भूमि, वन-भूमि में आता है। इस क्षेत्र में मन को हरने वाले कई प्राकृतिक सौन्दर्य स्थल स्थित हैं। और इन्हीं वनों के बीच, हमारे आदिवसी समुदाय के लोग, गांव में रहकर अपना जीवन-यापन करते हैं। इन गांव में रहने वाले अधिकांश लोग, आदिवसी समुदाय से होते हैं। और यह लोग जंगल से ही अपनी जरूरतों को पूरा करते हैं। क्योंकि, उन्हें आसानी से आस-पास के जंगलों से, अपनी जरुरत की चीज़ें उपलब्द हो जाती है। वे घर बनाने से लेकर, उसके लिपाई-पोताई तक के हर चीज को जंगल से प्राप्त करते हैं।
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आज, आपको ऐसे ही एक चीज से अवगत कराने वाले हैं। जो बहुत ही लाभकारी व उपयोगी है। मैं बात कर रहा हूं, काली मिट्टी का। जिसकी अवश्यकता हर आदिवासियों के घरों में होती है। इस काली मिट्टी का उपयाेग, महिलाएं बाल को धोने में, कुम्हार बर्तन व खिलौने बनाने में, गांव के लोग खप्पर एवं मिट्टी का तावे बनाने में और इसी मिट्टी को महिलाएं लिपाई-पोताई के लिए उपयोग करती हैं। जिससे घर सुंदर और अच्छा लगता है।
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कुंती बाई बिन्झवार, जो कोरबा जिला के रिंगनियां गांव में अपने परिवार के साथ रहती हैं। उन्होंने बताया कि, सर्वप्रथम इस मिट्टी को कारीछापर नामक जगह से लाते हैं। चूँकि, इस जगह पर पूरे गांव भर में सर्वाधिक काली मिट्टी प्राप्त होती है और इस स्थान पर काली मिट्ठी के प्रचुर मात्र में उपलब्ध होने के कारण, उस जगह का नाम कारीछापर रखा गया है। और वहीँ से काली मिट्टी को कुदाणी (कुदाली) से खुदाई कर, उसे इकट्ठा करते हैं। तत्पश्चात उसमें से काले-काले मिट्टी को, छंटाई करके थैला या बोरी में भरकर घर लाया जाता है।
इस मिट्टी को पत्थर के सहायता से, बारीक पीस लेते हैं और उसमें उपस्थित छोटे-छोटे कंकड़ों को निकाल लेते हैं। कई महिलाएँ इस काली मिट्टी को खाती भी हैं। वे मानते हैं कि, इसे खाने से पेट साफ होता है। पुरुष इस मिट्टी से गोरहा भी बनाते हैं। इस मिट्टी को बाल्टी या टब में पानी डाल कर, एक-दो घंटो के लिए रख देते हैं। उसके बाद, उसे अच्छी तरह से हाँथ से मसल-मसल कर घोल बनाया जाता है। और जहाँ पर इस घोल को पोताई करना होता है, उस जगह को अच्छे तरीका से साफ-सफाई करके, उसके ऊपर गोबर से लिपाई कर देते हैं। उसके बाद, गोबर से लिपे हुए भाग में तैयार की गई काली मिट्टी के घोल से पोताई करते हैं।
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इस घोल को पोतनी (कपड़ा का छोटा सा टुकडा) के सहायता से आंगन या घर के निचले हिस्से में हाँथ से अच्छी तरीके से फैलाया जाता है। फिर पोताई करके, उस जगह को कुछ समय के लिए खाली छोड़ा जाता है। ताकि, वह अच्छी तरह से सूख जाए और जमीन चिकना व सुंदर लगे। इस मिट्टी का उपयोग हमेशा नहीं करते हैं। क्योंकि, इस मिट्टी का उपयोग एक जगह में बार-बार पोताई कर किया जाय तो, वह जगह फटने लगता है। इसलिए, कुछ दिन छोड़कर या गोबर से पोताई करके ही इसका उपयोग किया जाता है। जब कोई त्यौहार या विशेष दिन होता है तो, उसी दिन इसका उपयोग किया जाता है। दिवाल को सफेद मिट्टी का पानी और नीचे जमीन को काली मिट्टी के घोल से पोताई की जाती है, जिससे घर के खुबसुरती में चार चाँद लग जाता है।
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आज कल ऐसे प्रकृति से सीधे प्राप्त चीजों का उपयोग बहुत कम देखने को मिलता है। क्योंकि, अब लोग मेहनत करना नहीं चाहते और समय बचाने के लिए दुकान से प्राप्त रंगों का उपयोग करते हैं, जो मिनटो में तैयार हो जाता है। जिससे कम समय में अधिक कार्य हो जाता है। और ऐसे में लोग आलसी व कमजोर होते जा रहे हैं। इसलिए, हमें प्रकृति से प्राप्त उत्पादकों का प्रयोग करना चाहिए। ताकि, पुरानी परम्पराएं जीवित रहने के साथ ही भौतिकवाद पर भी काबू किया जा सके।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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