पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
कुम्हार (कुंभकार) जाति के लोग मिट्टी से ही अपना रोजी-रोटी एवं जीवन-यापन करते हैं। कुम्हार शब्द, कुम्भकार से निकला हुआ प्रतीत होता है, जिसका अर्थ कुम्भ, यानि घड़ा बनाने वाला होता है। इन्हें कुम्भार, प्रजापति, प्रजापत, घूमियार, घूमर, कुमावत, भांडे, कुलाल या कलाल आदि नामों से भी अलग-अलग प्रदेशों में जाना जाता है। कुम्हारों की हस्तकला ही, उनके रोजगार का साधन होता है। कुम्हार अपने हाथों से मिट्टी की वस्तुएं बनाते हैं।
कुम्हार मिट्टी से वस्तुएं बनाने के लिए काली मिट्टी, लाल मिट्टी, रेत व राख आदि को एक साथ मिलाकर, पानी डाल कर अच्छे से मिक्स करते हैं। उसके बाद चाक (चकरी) में मिट्टी को रखकर उनको आकार देते हैं, और भिभिन्न-भिभिन्न वस्तुओं का निर्माण करते हैं।
तस्वीर में आप देख सकते हैं कि, एक कुम्हार अपने चाक की मदद से घड़ा बना रहा है। यह एक इलेक्ट्रिक चाक है, जो बटन दबाते ही घूमने लगता है और बटन बंद करते ही रुक जाता है। कुम्हार इस चाक में मिट्टी को रखता है और उसको स्टार्ट कर अकार देना चालू कर देता है। चौक के घूमने की वजह से वस्तुएं बनना स्टार्ट हो जाती है, फिर उसे तार की मदद से, मटके का निचला हिस्सा काटकर, धूप में सुखा दिया जाता है। घड़े के थोड़े ही सूखने के बाद उन पर मंजनी पालीस लगाया जाता है। मंजनी पालीस के मदद से घड़े को चमकाया जाता है। पाली से सूख जाने के बाद मटके को फिर आकार देने के लिए उसे ठोकना पड़ता है। यह पालीस और ठोकने की प्रक्रिया, एक मटके में तीन बार उपयोग होता है, तब जाकर वह मटका सही से बन पाता है।
मटके के सूख जाने के बाद एक गड्ढे में, सभी मटकाओं को एक-एक करके जमाया जाता है। सभी मटके के जमने के बाद, उसी गड्ढे में राख डालकर ढकते हैं। फिर अंदर में लकड़ी डालते हैं और पैरा भी, उसके बाद उसके चारों तरफ लकड़ी डालकर राख से पूरा ढक दिया जाता है। एक सिरा जो चोटी रहता है, उसको थोड़ा सा खुला रखते हैं, फिर मटके के भट्टे में आग लगा देते हैं। आग लगने के बाद पूरे मटकों को पकने में 4 घंटे का समय लगता है। मटकों के पक जाने के बाद, उनको रात-भर, ठंडा होने के लिए छोड़ देते हैं। उसके बाद सुबह मटकों को, एक-एक करके निकालते हैं और देखते हैं कि, कौन सा मटका अच्छे से पका है और किस को और पकाना है, उसको अलग रखते हैं। फिर अधपके मटकों को, अगली बार भट्टे में डाला जाता है।
देवी-देवताओं की मूर्तियां, दीया, बोरा, बैल, करसा, क्लास, ठेकुआ, पुरा, मर्की, ओम, देवा, चूल्हा व बच्चों के खिलौने। मिट्टी के बर्तन पकने के बाद, उनको नजदीकी बाजार एवं चौक-चौराहों में बेचने के लिए ले जाते हैं। और उसके बाद, उसी वस्तुओं के पैसे से जो आमदनी उनको प्राप्त होती है, उसी से यह अपना जीवन-यापन और अपने बच्चों का पालन पोषण करते हैं। लेकिन इन मिट्टी के बर्तन या खिलौने का मूल्य उतना ज्यादा नहीं रहता, जीतना उसमें मेहनत लगता है। और-तो-और लेने वाला व्यक्ति भी, वस्तुएं लेने पर मोलभाव करके, उसमें पैसा कम करवा ही लेता है।
इन कुम्हारों का रोजगार उतना अच्छा नहीं रहता। क्योंकि, पहले के समय में, सभी लोग मिट्टी के बर्तन व मिट्टी के वस्तुएं उपयोग करते थे। लेकिन अभी, वर्तमान के समय में, मिट्टी के बर्तनो को लोग नहीं के बराबर इस्तेमाल करते हैं। क्योंकि, सभी लोग स्टील के बर्तन, फाइबर के बर्तन आदि का अधिक यूज़ करते हैं। जिससे इनकी आमदनी, पहले के समय से कम होती है। गणेश पक्ष, दुर्गा पक्ष व विश्वकर्मा पक्ष आदि में ही इन लोगों को अच्छी-खासी आमदनी हो पाती है और बाकी समय में इनको एक दिन में 100 से 200 रुपये भी मिलना मुश्किल हो जाता है।
बहुत से कुम्हार, आमदनी अच्छी ना होने के कारण, मिट्टी के वस्तु बनाना छोड़ दिए हैं। और कुछ अन्य काम, अपने जीवन-यापन करने के लिए पकड़ लिए हैं और उसी में लगे हुए हैं। वह लोग इस काम को और करना नहीं चाहते। क्योंकि, इसमें मेहनत अधिक और आमदनी कम है।
शिव कुंभकार जी, जो कबीरधाम पिपरिया के निवासी हैं। उनका कहना है कि, “अभी वर्तमान में कुम्हारों का स्थिति बहुत ही खराब चल रहा है। क्योंकि, पहले जैसा अभी के समय में लोग मिट्टी के समान उपयोग करना बंद कर दिए हैं। इस कारण, इनके पास जो बना हुआ वस्तु भी रहता है। वह भी बिक नहीं पाता है, जिससे इनको नुकसान ही उठाना पड़ता है। बाकि मिट्टी के वस्तुएं, अपने सीजन में ही बिक पाते हैं। बाकी समय इनका बिकना मुश्किल हो जाता है।”
आगे, राजू कुंभकार जी बताते हैं कि, 30 वर्ष से मिट्टी के बर्तन बनाते हुए अपने परिवार को पाल रहे हैं। मिट्टी के बर्तन बनाने के अलावा इनके पास और कोई दूसरा रोजगार नहीं है, न ही कृषि करने के लिए इनके पास भूमि है। और न अन्य साधन, जिससे आय का आवक हो पाए। यह जैसे-तैसे करके अपने परिवार को पाल रहे हैं।
मौजूदा दौर में एल्युमीनियम, थर्माकोल व प्लास्टिक बर्तनों का खूब चलन चला है, जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। हमारे पूर्वज अपने समय में मिट्टी, लोहे व काँसे के बने बर्तनों का उपयोग करते थे। इसलिए उन्हें मौजूदा दौर की बीमारियाँ नहीं हुईं। यदि आप भी, अपने पूर्वजों की भाँति स्वस्थ्य जीवन-यापन करना चाहते हैं तो, मिट्टी के बने बर्तनों का उपयोग भोजन बनाने के लिए करें, ताकि आपके स्वस्थ्य के साथ ही इन कुम्हारों की माली हालत में सुधार हो सके।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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