पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
भारत, दुनिया में लाख का सबसे बड़ा उत्पादक है। लाख उत्पादन में छत्तीसगढ़ देश का सबसे बडा राज्य था। जिसने, वर्ष 2008-9 में 7200 टन के साथ रिकॉर्ड कायम किया। यह देश के लाख उत्पादन का 42 फीसदी है। फ़िलहाल अभी झारखण्ड राज्य पहले नम्बर पर है और छत्तीसगढ़ राज्य दूसरा स्थान रखता है।
आदिवासियों का जंगलों से बहुत गहरा रिश्ता है। आदिवासी हमेशा से ही जल, जंगल और पहाड़ों के बीच रहते आए हैं। वे जंगलों व प्रकृति के असल संरक्षक होते हैं। जंगलों, नदियों और पहाड़ों को, वे अपना पुरखे और करीबी मानते हैं। आदिवासियों के जीवन में पेड़ों का विशेष महत्व है, इसके बिना हम अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। आदिवासी समुदाय, हमेशा से ही वनों के संसाधनों पर निर्भर रहा है। उनमें से कई के लिए, वन के संसाधन न केवल आर्थिक जीविका प्रदान करते हैं। बल्कि, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से जीवन जीने का एक माध्यम भी है। आदिवासी, पेड़ों से ईंधन के लिए लकड़ी, इमारती लकड़ी, पत्ते, फल-फूल और जड़ी-बूटियां आदि उपयोग में लेते हैं। और इन्हीं पेड़ों में से, कुछ ऐसे पेड़ होते हैं। जिनमें, विशेष प्रकार के कवच चड़ते हैं, जिसे हम ‘लाख’ के नाम से जानते हैं। उन पेड़ों पर, लाख पैदा करने वाले, एक सूक्ष्म प्रकार के कीट होते हैं।
यही वो बीज होता है, जिससे लाख उत्पन्न होता है। लाख मुख्यत: पलाश, बेर और कुसुम पेड़ों पर अधिक पाया जाता है। इस बीज को, लाख होने वाले अन्य पेड़ों पर हस्तांतरित किया जाता है। लेकिन, इसको एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर हस्तांतरित करने का एक निश्चित और सटीक समय होता है। यह सूक्ष्म जीव, लाख से कार्तिक माह में निकलता है। यह जीव निकलने के बाद, लगभग पांच से छः दिन तक, विचरण या चलते-फिरते हैं। उसके बाद यह पेड़ की छोटी-छोटी डालियों पर, हमेशा के लिए बैठ जाते हैं और पेड़ कि छाल को खा कर, अपने मल द्वारा लाख उत्पन्न करते हैं।
वर्तमान में, वन क्षेत्रों के किसानों में, लाख की खेती तेजी से लोकप्रिय हो रही है। इसका मुख्य कारण, प्राकृतिक रूप से बहुतायत में पाए जाने वाले पलाश के पेड़ हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने इसे अब, कृषि का दर्जा दे दिया है और इसके विस्तारीकरण के लिए सरकार द्वारा विभिन्न तरीकों से सहायता प्रदान किया जाता है। जिससे किसानों को अधिक से अधिक लाभ मिल सके।
हमने ग्राम डोंगरी के, बिहान स्व-सहायता समूह के, दिलबाई कंवर से बात किया। उन्होंने बताया कि, इस समूह में 10 सदस्य हैं। जिसमें से नौ आदिवासी कंवर समुदाय के हैं। उन्होंने आगे बताया कि, हमें कुछ कृषि विभाग के अधिकारियों द्वारा, लाख खेती कि जानकारी दी गई। और हमारे समूह को इसकी खेती करने के लिए विशेष औजार भी प्रदान किया गया। जिसमें, हमें छिड़काव के लिए स्प्रे-यंत्र, लाख काटने के लिए हथियार, दवाई, सरोता आदि सामान वितरीत किए गए।
दिलबाई कंवर आगे कहते हैं कि, उनके समूह को लाख बीज देने का आश्वासन दिया गया था। पर, अभी तक उन्हें बीज नहीं मिला है। इसके अलावा उन्होंने बताया कि, समूह में जुड़े सभी सदस्य लाख कि खेती करते हैं। पर सभी के यहाँ, एक समान लाख उत्पादन नहीं होता। क्योंकि, यह लाख होने वाले पेड़ पर निर्भर करता है कि, किसके पास किस प्रकार के वृक्ष हैं।
हमने, इसी महिला समूह में जुड़े, अमृता बाई से भी बात की। जिन्होंने, बताया कि, वह इस लाख की खेती से लगभग हर साल 15 से 25 हजार रुपया बेच कर कमा लेती हैं। उन्होंने आगे बताया कि, “यह दो फसलीय होता है। पहला पौष माह में काट लिया जाता है और दूसरा जेठ माह में। जिसमें, पौष माह में काटे जाने वाला लाख बहुत हल्का होता है। जबकि, गर्मी के समय जेठ माह में होने वाला लाख वातावरण के अनुकूल होता है और पौष माह की अपेक्षा, अधिक व वजन में भी थोड़ा भारी होता है। क्योंकि, उस समय तेज धूप के कारण, वह गुड़ के चाशनी की तरह चिपचिपा होता है। और इस समय के लाख को खुरचने पर हांथो में खून के जैसा लाल रंग लग जाता है। जो, बाद में साबुन या सर्फ से धोने पर नीले रंग का हो जाता है। और यह रंग हाथ में हफ्तों तक रहता है। यह, अच्छे दामों में बिकने के कारण चोरी भी होता है। लाख काटने के समय, सावधानी रखना जरूरी होता है। जिससे यह चोरी न हो।”
अभी ग्रामीण क्षेत्रों में, आदिवासियों द्वारा लाख कि खेती की जा रही है। जिसे किसान अच्छे दामों पर बेच कर, अपने जरूरतों को पूरा कर रहे हैं। इसकी खास बात है कि, इसे बेचने के लिए कहीं जाने कि जरूरत नहीं होती। चूँकि, गांव में ही छोटे व्यापारी आते हैं। इससे व्यापारी को अच्छी मात्रा में लाख मिल जाती है और किसानों के समय की बचत होती है। हमने गांव में आए, लाख खरीदने वाले व्यापारी से, इसके भाव (रेट) के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया कि, “पलाश का लाख 500 और कुसूम का लाख 650 रुपए किलो में खरीद रहे हैं।”
नोट :- लाख की खेती छोटे एवं बड़े दोनों किसानों के लिए फायदे की खेती है। इसकी खेती अन्य खेती से आसान, सरल और बहुत ही कम खर्च में कर सकते हैं। इसमें न खाद डालने और न ही कीटनाशक दवाओं का खर्च होता है। इसे बस एक बार सही समय में लगाना होता है और सीजन में काटकर बेचना पड़ता है। इसकी कीमत बाजारों मे अच्छी मिल जाती है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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