भारत को आज़ादी दिलाने के लिए अनेक देशभक्तों ने अंग्रेज़ों से लोहा लिया। इस आज़ादी के जंग में हमारे आदिवासी युवा भी पीछे नहीं थे। भगवान बिरसा मुंडा, वीर नारायण सिंह जैसे कई लोग स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आज़ादी के लिए तथा अपने जल जंगल ज़मीन के अधिकारों के लिए लड़े हैं।
भगवान बिरसा मुंडा ने पहले बिहार और झारखंड के आदिवासियों के अधिकार एवं उनकी आज़ादी के लिए अनेकों संघर्ष किये हैं। उनका 146वां जन्मदिवस मनाया जा रहा है, 15 नवंबर 1875 को रांची के पास उलिहातू गाँव में हुआ था। आदिवासियों के हक़ को बचाने हेतु अंग्रेज़ों के साथ हुए उनके भीषण युद्धों तथा आदिवासियों के भले के लिए उनके द्वारा किये गए कार्यों की वजह से बिरसा मुंडा भगवान की तरह पूजे जाने लगे। भगवान बिरसा मुंडा जी ने अपनी अंतिम सांसे 9 जून सन् 1900 को राँची जेल में लिए।
जिस तरह छत्तीसगढ़ में गुंडाधुर वीर नारायण सिंह ने आदिवासियों के हितों के लिए आंदोलन किए उसी प्रकार भगवान बिरसा मुंडा में झारखंड के आदिवासियों के लिए आंदोलन किये। उनके आंदोलन को 'उलगुलान' कहा जाता है।
2019 में गणतंत्र दिवस के सुअवसर पर जब दिल्ली के राजपथ में छत्तीसगढ़ की एक झांकी निकाली गई तो उसमें हमारे गुंडाधुर के साथ-साथ भगवान बिरसा मुंडा जी की छवि को भी दिखाया गया था, इससे साफ़ जाहिर होता है कि छत्तीसगढ़ भी बिरसा मुंडा के जीवन और उनके आंदोलनों से प्रेरित है। उनके जन्म दिवस के मौके पर कई आदिवासी समुदाय उनकी याद में बहुत सारे कार्यक्रम रखते हैं। भगवान बिरसा मुंडा के बारे में बहुत सारी किताबें भी छत्तीसगढ़ी बोली में छपती हैं। इन किताबों को आदिवासी छात्रावासों में वितरण की जाती हैं, जिन्हें आदिवासी छात्र पढ़ते हैं और उनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं। छत्तीसगढ़ में भगवान बिरसा मुंडा का गहरा असर रहा है यहाँ के क्रांतिकारियों ने भी उनके नक़्शे कदम पर चलने का प्रयास किये हैं।
भगवान बिरसा मुंडा और गुंडाधर ने जल जंगल और ज़मीन पर अतिक्रमण करने वालों से लड़ कर अपनी जान की कुर्बानी तो दे दी लेकिन उनके सपने अभी भी अधूरे हैं।
आज़ादी के इतने सालों के बाद भी छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर संभाग में आदिवासियों में हो रहे कई अत्याचार की खबरें आती रहती हैं । आज भी छत्तीसगढ़ और झारखंड के आदिवासीयों को फर्जी नक्सली बना कर उन्हें जेल में बंद कर दिया जाता है। कई बार तो निर्दोष लोगों को नक्सली बना कर एनकाउंटर की खबरें आती रहती हैं। अभी कुछ ही दिनों पहले बस्तर में एक आंदोलन चला था जिसमें आदिवासी बस अपने जीने के अधिकार को लेकर सड़क पर उतर गए थे। वे नहीं चाहते थे कि उनके जंगलों को उजाड़ कर पुलिस कैम्प बनाया जाए, उनका कहना था की जहाँ पुलिस अपना चौकी बनाती है, उसी क्षेत्र के आसपास के निर्दोष आदिवासीयों को फर्जी नक्सली बना कर मार दिया जाता है। बहुत सी जगह में पुलिस की चौकी आदिवासी समुदाय की देवी देवताओं की पूजा स्थान को उजाड़ कर बनाये गए हैं। इसीलिए बस्तर के आदिवासी यह आंदोलन कर रहे हैं।
आए दिन आदिवासियों के ऊपर हो रही इस तरह के अत्याचार की खबरें आती रहती हैं कभी सरकार के सरकारी कर्मचारियों द्वारा कभी पुलिस विभाग द्वारा तो कभी नक्सलियों द्वारा। इन अन्यायों के ख़िलाफ़ आदिवासी हमेशा आंदोलन करते रहते हैं। लेकिन इन आंदोलनों को एक मज़बूत नेतृत्व न मिलने की वजह से इन आंदोलनों की लौ कम होती जाती है।
आज भगवान बिरसा को छत्तीसगढ़ और उसमें भी खासकर बस्तर के परिदृश्य में याद करना इसीलिए ज़रूरी है क्योंकि यहाँ भी बिरसा जैसे क्रन्तिवीर युवा नेतृत्व की ज़रूरत है।
बिरसा के 'उलगुलान' के बाद अंग्रेजों ने मजबूर होकर आदिवासियों के हक़ के लिए छोटानागपुर काश्तकार अधिनियम बनाया। बस्तर में भी नक्सलियों और स्वार्थी सरकारी तंत्रों के ख़िलाफ़ ऐसे ही किसी 'उलगुलान' की ज़रूरत है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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