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Writer's pictureVarsha Pulast

क्या पंडो जनजाति की यह कला लुप्त हो रही है?

आत्मनिर्भर होने का विचार आदिवासियों के लिए नया नहीं है, आदिवासी अपने रोज़मर्रा में काम आने वाली चीज़ें अक्सर स्वयं से ही बना लेते हैं। लेकिन आदिवासियों में ही कुछ लोग या समुदाय ऐसे होते हैं जो किसी खास कला में निपुण होते हैं और उनके द्वारा बनाई चीज़ें अन्य लोग प्रयोग में लाते हैं। कोरबा जिले के बिंझरा गाँव में रहने वाले पंडो समुदाय के लोग ऐसे ही एक कला में निपुण हैं, और अपने गुणों की वजह से न सिर्फ़ अपना जीवनयापन करते हैं, बल्कि उनके कार्यों की वाह-वाही बाहर भी होती है।

बांस के उत्पाद बनाते पंडो समुदाय के लोग

ये लोग बांस से सुपा, टोकरी, झांसी आदि बनाने के लिए जाने जाते हैं, और अपने इस कार्य में ये बेहद दक्ष होते हैं। यही इनका पेशा है, बचपन से ही इस समुदाय के बच्चे यह काम सीखते हैं, और बड़े होने तक ये एक तरह के कलाकार बन चुके होते हैं। ये पीढ़ी दर पीढ़ी इस काम को सीखते चले आ रहे हैं, इनके अलावे बांस से इस तरह की चीज़ें बनाना बहुत कम ही समुदाय के लोगों को आता है। वे कहते हैं कि "हमारा काम सुपा-टोकनी बनाना होता है गाँव के लोगों के लिए यह बहुत ही उपयोगी सामान हैं, विवाह आदि समारोह में इनका ज्यादा इस्तेमाल होता है। परन्तु अब धीरे-धीरे मशीनों द्वारा बनाए गए प्लास्टिक के चीज़ों का प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा है, जिससे हमारे इन बांस के उत्पादों की माँग घटते जा रही है।" आदिवासियों के कलाओं में हमेशा प्रकृति के साथ समन्वय होता है लेकिन, इस तेज़ी से बदलती दुनिया में इस तरह के कलाकार द्वारा बनाए गए उत्पाद कम होते जा रहे हैं और कृत्रिम चीज़ें ही हमें अपने चारों ओर देखने को मिलती है।

बांस की झाड़ू बनाती महिला

आदिवासियों के इस बहुमूल्य ज्ञान को संरक्षित करने की आवश्यकता है, मशीनी उत्पाद के बजाय आदिवासियों द्वारा प्राकृतिक चीज़ों से बनाए गए उत्पादों का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए, इससे न सिर्फ़ आदिवासियों का जीवन स्तर बेहतर होगा बल्कि प्रकृति को भी बचाया जा सकता है।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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