चावल भारतीयों का एक मुख्य आहार है, और छत्तीसगढ़ में तो ज्यादातर आदिवासी घरों में चावल पकता है। बहुतायत में उत्पादन होने के कारण यह राज्य धान का कटोरा भी कहलाती है। वैसे तो चावल के अनेकों किस्म हैं, लेकिन प्रत्येक चावल के दो रूप और होते हैं, एक है अरुआ और दूसरा है उषना। जब धान से सीधे चवाल निकाले जाते हैं तब उस चवाल को अरुआ चवाल कहते हैं, परंतु जब धान को उबाल कर चवाल बनाया जाता है तब उसे उषना चवाल कहते हैं। छत्तीसगढ़ के आदिवासी घरों में ज्यादातर उषना चवाल का ही सेवन किया जाता है।
कोरबा जिले में रहने वाले पण्डों जनजाति के कुछ बुजुर्गों से उषना चवाल के बारे बातचीत करने पर निम्न जानकारियां मिली। आदिवासी घरों में लोग चवाल खरीदकर नहीं खाते हैं, खुद धान उगाते हैं और उसी का चवाल बना कर खाते हैं। अरुआ चवाल का उपयोग सिर्फ़ पूजा आदि करने में, या खिचड़ी या खीर बनाने में प्रयोग होता है। रोज के खाने में उषना चवाल का प्रयोग होता है। उषना चवाल बनाने के लिए पहले धान को एक बड़े बर्तन में भरकर उसे पानी से भर दिया जाता है और फ़िर आग में चढ़ाकर उस धान को सिझाया जाता है, एक डेढ़ घंटे आग में रहने के बाद जब धान के अंदर मौजूद चवाल हल्का पक जाता है तब उसे चूल्हे से उतार लिया जाता है। अब उस धान को आँगन में या छत पर धूप में दिन भर सुखाया जाता है। दिसम्बर जनवरी के महीने में लगभग हर आदिवासी घर के आंगनों में धान सूखते हुए मिलेंगे, कुछ लोग तो पक्की सड़क को साफ़ कर उसमें धान सुखाते हैं। उस धूप में धान के अंदर का पका हुआ चवाल वापस सिकुड़कर टाइट हो जाता है। फ़िर उस धान को चलनी में साफ़ कर बोरों में बांध कर रख दिया जाता है, और जरूरत के अनुसार उन्हें निकालकर ढेंकी या मूसर में कूटकर या मशीन में पिसवाकर चवाल बनाया जाता है।
अरुआ चवाल के मुकाबले उषना चावल से बने भात ज्यादा पौष्टिक और स्वादिष्ट होते हैं। गाँव के बुजुर्ग बताते हैं कि, अरुआ चावल का नियमित सेवन करने से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर होता है, लेकिन वहीं उषना चावल शरीर को ज्यादा मज़बूत बनाता है।
स्वयं के हाथों से बनाए गए उषना चवाल से बने भात का स्वाद अन्य चावलों के मुकाबले बहुत स्वादिष्ट होता है। आजकल लोग मशीन से बनाये गए चावलों को खरीदकर खा रहे हैं, इन चावलों की न तो स्वाद अच्छी होती है, और स्वास्थ्य के लिए तो मशीन से बने चावल बहुत खतरनाक होते हैं। आदिवासी गाँवों में भी चावल खरीदकर खाने का चलन बढ़ रहा है, और लोग धान से चावल बनाने के अपने पारम्परिक ज्ञान को भूल रहे हैं। इस आधुनिक जमाने के युवाओं को भी अपने बुजुर्गों से इस ज्ञान को जरूर सीखना चाहिए ताकि शरीर भी स्वस्थ रहे और संस्कृति भी बची रहे।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
Comments