“नींद में डूबी बेख़बर
फूलों की ख़ुशबू
उठती है तिलमिला कर,
जब नथुने भरने लगते हैं
मशीनों की गंध से
और फटने लगते हैं कान
विस्फोटों से।”
कथित विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों की लूट और जंगलों की बर्बादी को बयां करती ये पंक्तियां ‘सारंडा के फूल’ शीर्षक से लिखी गई एक कविता का अंश है। दिलचस्प यह है कि इस कविता को लिखनेवाली कवयित्री का नाम भी एक फूल के नाम पर है। नाम हैं जसिंता केरकेट्टा। अपनी कविताओं में पीड़ितों और वंचितों का पक्ष रखनेवाली जसिंता केरकेट्टा का नाम एक फ्रेंच कामगार ने रखा था। एक इंटरव्यू में अपने नामकरण के पीछे का किस्सा बताते हुए जसिंता कहती हैं, ‘‘जिस इलाके में मेरा जन्म हुआ था वहां फ्रांस से कुछ लोग काम करने आए थे, उन्होंने ही मेरा नाम रखा।’’
हालांकि, एक मेक्सिकन पत्रकार से मुलाकात के पहले तक जसिंता अपने नाम से खुद को कनेक्ट नहीं कर पाती थीं। उस मेक्सिकन पत्रकार ने जसिंता केरकेट्टा को फ्रेंच फूल जसिंता से जुड़े उस मिथ के बारे में बताया जिसमें ऐसा माना जाता है कि एक बहुत ही महान व्यक्ति की हत्या के दौरान जो खून जमीन पर गिरे वहां एक खूबसूरत फूल उग आया। आज उसी फूल को हम जसिंता के नाम से जानते हैं। अपनी कविताओं से देश ही नहीं विदेशी लोगों के लिए भी प्रेरणा बन चुकीं कवयित्री और युवा पत्रकार जसिंता केरकेट्टा का जन्म 3 अगस्त, 1983 को झारखण्ड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में सारंडा जंगल से सटे झारखण्ड और ओडिशा की सीमा पर स्थित मनोहरपुर प्रखंड के खुदपोस गांव में हुआ था। जसिंता अपनी आदिवासी पहचान, जन्मभूमि, मातृभाषा इत्यादि को लेकर इतनी एक्सप्रेसिव हैं कि जन्म स्थान का जिक्र करते हुए अपने टोला ‘बांधटोली’ का भी जिक्र करना नहीं भूलतीं। अपने कविता संसार में जल, जंगल, जमीन और आदिवासी अस्मिता की तलाश करने वाली जसिंता केरकेट्टा आज दुनिया के कई हिस्सों में चर्चित हो चुकी हैं। आज वह कई देशों में लेक्चर देती हैं और वॉर्कशॉप कराती हैं। इटली, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में कविता संवाद कर चुकी हैं। कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से नवाज़ी जा चुकी हैं। जसिंता झारखंड की पहली आदिवासी कवयित्री हैं जिनकी कविताओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक साथ तीन भाषाओं में प्रकाशित किया गया है।
लेकिन ये सब इतना आसान नहीं था। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त यह लड़की कभी ईमली बेचने को मजबूर थी, कभी दुकान में काम करने को, तो कभी 100 रुपये के कमिशन के लिए घर-घर जाकर मार्केटिंग करती थीं। वर्तमान में हासिल सम्मान और प्रसिद्धी तक पहुंचने के पहले का सफर बहुत ही दुर्गम है। इस सफर में गहरे रंग के कारण झेला गया अपमान है, आदिवासी होने का ‘अपराध’ है, तंगहाली से छूट गया स्कूल है, बीमारी से जूझता शरीर है, मृत्यु से साक्षात्कार है, पागलखाने में भर्ती कराए जाने के हालात हैं और भी बहुत कुछ है।
अपने कविता संसार में जल, जंगल, जमीन और आदिवासी अस्मिता की तलाश करने वाली जसिंता केरकेट्टा आज दुनिया के कई हिस्सों में चर्चित हो चुकी हैं। आज वह कई देशों में लेक्चर देती हैं और वॉर्कशॉप कराती हैं। इटली, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में कविता संवाद कर चुकी हैं। कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से नवाज़ी जा चुकी हैं। जसिंता झारखंड की पहली आदिवासी कवयित्री हैं जिनकी कविताओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक साथ तीन भाषाओं में प्रकाशित किया गया है।
शुरू से शुरू करते हैं
उरांव आदिवासी समुदाय में जन्म लेने वाली जसिंता का पालन-पोषण बेहद ही गरीबी में हुआ। हालांकि, जिस समुदाय और क्षेत्र में जसिंता का जन्म हुआ वहां आज भी गरीबी कोई नयी समस्या नहीं है, ना इकलौती। तीन बहन, दो भाई और माता-पिता के इस परिवार का संघर्ष भी क्षेत्र के दूसरे आदिवासी परिवारों की तरह ही था। जसिंता के पिता पुलिस में थे लेकिन महकमे में आदिवासी और गैर-आदिवासी के बीच होने वाले भेदभाव के कारण उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी। एथलेटिक से पुलिस में गए जसिंता के पिता रिश्वतखोरी के खिलाफ रहते थे, यही वजह है कि उन्हें अक्सर निलंबित कर दिया जाता था। ऐसे में तनख्वाह भी बहुत कम मिलती थी, जिससे परिवार का भरण-पोषण मुश्किल होता रहा। मां राउरकेला में सब्जी बेचने जाती थीं। जब खेती का समय होता तो सब्जी बेचना बंद कर देती थीं। बचपन से जसिंता ने जो भी निर्णय लिया मां हमेशा साथ खड़ी रहीं। उन्हें जसिंता की बहुत सारी चीजें समझ नहीं आती थी पर उनका कहना था, ‘‘मुझे तुम पर भरोसा है।’’ दोनों बड़े भाइयों ने सीवान से शुरुआती पढ़ाई करने के बाद स्कूल छोड़ दिया था। फिर दोनों ही गुजरात में मजदूरी करने लगे। फिलहाल कुछ नहीं करते। बहनों की प्रांरभिक शिक्षा के लिए जसिंता की मां ने उन्हें मिशन स्कूल में भर्ती कर दिया था और खुद भी वहीं काम करने लगी थीं। बहनों की आगे की पढ़ाई की जिम्मेदारी जसिंता ने खुद उठाई।
रोलर कोस्टरः जसिंता का शैक्षणिक सफर
जसिंता केरकेट्टा का पूरा जीवन ही उस कुटज के जीवन संघर्ष के समान है जिसकी महिमा का गुणगान कालिदास से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी तक ने की है। अपने शैक्षणिक सफर के दौरान जसिंता ने जिन परिस्थितियों का सामना किया, उसकी कल्पना भी भारत के खाय-अघाय तबके के लिए असंभव है। परिवार की तंगहाली, पितृसत्ता, विस्थापन, खराब शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, आदिवासी पहचान और ऐसी कई अड़चनें थीं जिसने जसिंता के शैक्षणिक सफर को रोलर कोस्टर राइड बना दी। मेलेवाले रोलर कोस्टर और जसिंता के जिन्दगी के रोलर कोस्टर में फर्क बस इतना था कि, मेले वाली राइड लोग अपने रोमांच के लिए खुद चुनते हैं और जसिंता को ये सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक और नस्लीय परिवेश से मिला था।
जसिंता जब पांचवीं या छठी कक्षा में थी तब बहुत भयानक तरीके से बीमार पड़ी। पूरे शरीर की गांठों में दर्द। हालत यह हो गई कि छह महीने तक अस्पताल में रखना पड़ा। इस दौरान पारिवारिक कलह भी चरम पर था। माता-पिता का रोज लड़ना। बड़े भाइयों का साथ खड़े न होना। मां का अकेले पड़ जाना। ये सब देखकर जसिंता को मानसिक रूप से बहुत आघात पहुंचा। हालांकि, इस दौरान भी उन्होंने पढ़ाई के अपने जुनून को कम नहीं होने दिया। वह बीमारी की हालत में भी पढ़ती रहीं। इस बीच बीमारी भी बढ़ती रही। हालत बद से बदतर हुई। मृत्यु की आशंका जताई जाने लगी। चर्च से दिया जाने वाला अंतिम संस्कार भी दे दिया गया। अब बात रांची के पालगखाने में रखने की होने लगी। इतना कुछ होने के बाद भी जसिंता ने हार नहीं मानी। वह लड़ती रहीं। फिर धीरे-धीरे ठीक होने लगीं।
अब एक दूसरी समस्या प्रकट हुई। स्वास्थ्य में सुधार तो हुआ लेकिन जसिंता ने अपनी स्मरण शक्ति खो दी। वह इस अवस्था में 3-4 माह तक रहीं। उन्हें सिर्फ दो चीजें याद थी-जंगल और पहाड़। उनकी मां उन्हें रोज जंगल और पहाड़ दिखाने ले जाती थीं। जसिंता दो सालों तक अपना ध्यान केंद्रित करने के लिए कठिन अभ्यास करती रहीं। इस बीच पिता का तबादला हो गया। जसिंता को छात्रावास भेज दिया गया। यह पहला मौका था जब जसिंता घर से दूर गैर-आदिवासी बच्चों के बीच थीं। उन्हें वहां उनके रंग के कारण लगातार अपमानित किया जाता था। ऐसे में मानसिक स्वास्थ्य का खराब होना जारी रहा। वह बस किसी तरह आठवीं पास कर लेना चाहती थीं। वह जूझती रहीं लेकिन उन्होंने पढ़ना जारी रखा। इम्तिहान हुआ और जसिंता अच्छे नंबर से पास हो गईं। मैट्रिक तक की पढ़ाई पश्चिमी सिंहभूम जिले के चक्रधर ब्लॉक में कारमेल स्कूल से हुई। मैट्रिक के बाद जसिंता साइंस से पढ़ाई करना चाहती थीं। पढ़ाई में अच्छी थीं। हमेशा टॉप थ्री में रहती थीं। साइंस की पढ़ाई के लिए सेंट पॉल में एडमिशन भी लिया लेकिन फीस नहीं दे पाने की वजह से पढ़ाई छोड़कर गांव जाना पड़ा।
उस स्थिति में लगा की आगे की पढ़ाई नहीं हो पाएगी। लेकिन जसिंता ने गांव में रहकर ही मनोहरपुर के सेंट ऑगस्टीन कॉलेज में आर्ट्स लेकर इंटर की पढ़ाई शुरू कर दी। घर से स्कूल की दूरी पांच किलोमीटर थी तो मां से मनुहार कर एक साइकिल खरीदवाई पर यह सब बड़े भाई को बिल्कुल रास न आयी। बड़ा भाई जिसने खुद पढ़ाई छोड़ दी थी, वह बहन की पढ़ाई के सख्त खिलाफ था। घर से निकलने तक पर पाबंदी लगा दी। अब जसिंता को सिर्फ घर और खेत का काम करने की इजाज़त थी। जसिंता आदेश की आंशिक अवमानना करती रहीं। घर से ही पढ़ाई जारी रखी। दिन में मां के साथ धान काटती और रात में जागकर पढ़ाई करती। कॉलेज को अपनी दिक्कत बताकर परीक्षा में शामिल होने की अनुमति ले ली। इम्तिहान हुआ और परिणाम आया। जसिंता ने आर्ट्स से पूरे कॉलेज में टॉप किया।
इस परिणाम ने जसिंता केरकेट्टा के सपनों को पंख लगा दिए। जसिंता ने घर छोड़ा और रांची चली गईं। अब जसिंता सेन्ट जेवियर्स कॉलेज से मास कम्यूनिकेशन की पढ़ाई करना चाहती थीं। एक बार फिर खराब आर्थिक हालात ने राह रोकनी चाही, लेकिन इस बार भी मां ने बचा लिया। जसिंता की मास कम्यूनिकेशन की पढ़ाई के लिए मां ने ज़मीन बंधक रखकर 7000 रुपये दिए। इसके बाद भी जब पैसों की कमी हुई तो मिशन की संस्थाओं से मदद मांगी। कुछ अधिकारियों के पास भी गईं लेकिन उन्होंने मदद नहीं की। खैर, स्नातक पूरा हुआ। लेकिन आय का कोई साधन अब भी नहीं था। अखबारों में नौकरी मिल नहीं रही थी, तो दुकानों में काम करना शुरू कर दिया। जब इससे भी गुजारा नहीं हुआ तो 100-150 रुपए के कमिशन पर घर-घर जाकर अग्निशामक यंत्र की मार्केटिंग करने लगीं। करीब दो साल इस तरह के कामों को करते हुए बीत गए इसके बाद पत्रकारिता करने का मौका मिला।
बचपन से किताबों में रुचि रखनेवाली जसिंता ने चौथी कक्षा से ही पाठ्यक्रम से इतर की किताबों को पढ़ना शुरू कर दिया था। पहले कॉमिक्स और पत्रिकाओं को निपटाना शुरू किया। फिर आसपास रेंट पर रहने वाले लड़कों से प्रेमचंद की कहानियां मांगकर पढ़ने लगीं। किताबों की लत ऐसी कि आठवीं तक आते-आते ‘मानसरोवर’ लगभग पूरी खत्म कर दी।
पत्रकारिता से मोहभंग
जसिंता अपने एक साक्षत्कार में बताती हैं कि पत्रकारिता में वह इसलिए आई ताकि आदिवासी क्षेत्र के गांवों में जमीन को लेकर होने वाली हत्याओं और अत्याचार को दुनिया के सामने ला सकें। गांव-गांव जाकर अपने क्षेत्र की विभिन्न समस्याओं को लिख सकें। जसिंता पत्रकारिता के अपने शुरुआती दिनों में अक्सर सुबह 6 बजे उठकर आस-पास के गांवों में निकल जाया करती थीं। जंगलों में घूम-घूमकर लोगों की समस्याओं को दर्ज करती थीं। इस दौरान उन्होंने बाईक चलाना भी सीख लिया। जसिंता का मानना है इससे उन्हें संतुष्टि मिलती थी।
लेकिन जसिंता को जब लगने लगा कि इस तरह काम करना हमेशा संभव नहीं है तो फिर वह अभिव्यक्ति के अपने पुराने माध्यम ‘कविता’ की तरफ लौटने लगीं। 3–4 साल काम करने के बाद उन्हें पता चल गया कि वह पत्रकारिता में जिन सपनों को लेकर आई थीं, वह उन्हें पूरा नहीं कर पा रही हैं। जसिंता का मानना है कि जो बात वो पत्रकारिता करते हुए नहीं कह पाती थी, वह कविताओं के माध्यम से कहने लगीं। हालांकि, जसिंता अब भी थोड़े-थोड़े अंतराल पर आदिवासी क्षेत्र की समस्याओं पर लेख और रिपोर्ट लिखती रहती हैं। साल 2014 में आदिवासियों के स्थानीय संघर्ष पर लिखी एक रिपोर्ट के लिए बतौर आदिवासी महिला पत्रकार जसिंता को एशिया इंडिजिनस पीपुल्स पैक्ट, थाईलैण्ड की ओर से इंडिजिनस वॉयस ऑफ़ एशिया का रिकगनिशन अवार्ड दिया गया था। साल 2014 में ही जसिंता को बतौर स्वतंत्र पत्रकार प्रतिष्ठित यूएनडीपी फेलोशिप भी मिली थी।
बचपन से कवयित्री
बचपन से किताबों में रुचि रखनेवाली जसिंता ने चौथी कक्षा से ही पाठ्यक्रम से इतर की किताबों को पढ़ना शुरू कर दिया था। पहले कॉमिक्स और पत्रिकाओं को निपटाना शुरू किया। फिर आसपास रेंट पर रहने वाले लड़कों से प्रेमचंद की कहानियां मांगकर पढ़ने लगीं। किताबों की लत ऐसी कि आठवीं तक आते-आते ‘मानसरोवर’ लगभग पूरी खत्म कर दी। जानकारी के लिए बता दें कि मानसरोवर प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। आठ खंडों में विभक्त मानसरोवर में करीब 300 कहानियां हैं।
दरअसल, जसिंता ज्यादातर अकेले रहती थीं। दोस्त भी नहीं थे। ऐसे में किताब ही सहारा था। किताबें उस दरवाज़ा की तरह थीं जिसके रास्ते वह घर-परिवार की परेशानियों और अन्य तकलीफ से कुछ देर के लिए बाहर निकल पाती थीं। जसिंता ने मिशन स्कूल में आने वाली पत्रिका ‘राही’ में आठवीं कक्षा से ही थोड़ा बहुत लिखना शुरू कर दिया था। हॉस्टल के अकेलेपन से जुड़ी उनकी रचना ने देश के अलग-अलग मिशन स्कूल के बच्चों को बहुत प्रभावित किया। अंडमान के मिशन स्कूल में पढ़ने वाले लड़के, लड़कियों ने उन्हें पत्र लिखकर बताया कि कैसे उनकी रचनाओं से वो जुड़ाव महसूस कर रहे हैं।
साहित्यिक कार्य व सम्मान
जसिंता का पहला काव्य संग्रह ‘अंगोर’ 2016 में हिंदी-अंग्रेजी में आदिवाणी, कोलकाता से प्रकाशित हुआ। ‘अंगोर’ का जर्मन संस्करण हिंदी-जर्मन में ‘ग्लूट’ नाम से द्रोपदी वेरलाग, जर्मनी से प्रकाशित हुआ। 2014 में विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर झारखण्ड इंडिजिनस पीपुल्स फोरम की ओर से जसिंता को उनकी कविताओं के लिए सम्मानित किया गया था। इसके अलावा 2015 में रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार और 2017 में प्रभात खबर अख़बार द्वारा अपराजिता सम्मान से भी सम्मानित किया जा चुका है। 2021 में इन्हें जन कवि मुकुट बिहारी सरोज सम्मान से सम्मानित किया गया। फिलहाल जसिंता गांव में सामाजिक कार्य के साथ-साथ कविता सृजन का कार्य भी कर रही हैं। हाल ही में जसिंता केरकेट्टा का एक कविता संग्रह ‘ईश्वर और बाज़ार’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।
लेखक परिचय:- श्वेता, एक नारीवादी। साहित्य और सिनेमा प्रेमी। जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में परास्नातक की पढ़ाई जारी। हिन्दी साहित्य में महिलाओं और ट्रान्स समुदाय की उपेक्षित स्थिति से बेचैन। पसंदीदा शौक वेट लिफ्टिंग।
नोट: यह लेख सबसे पहले फेमिनिज्म इन इंडिया पर प्रकाशित हुआ था, जो एक पुरस्कार विजेता इंटरसेक्शनल फेमिनिस्ट प्लेटफॉर्म है जो कला, मीडिया, संस्कृति, तकनीक और समुदाय का उपयोग करके महिलाओं और हाशिए के लोगों की आवाज को बढ़ाता है।
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