1 जनवरी 1948 का दिन, खरसावां की धरती पर एक ऐसा काला दिन था, जिसने इतिहास के पन्नों पर अमिट छाप छोड़ दी। भरे बाजार में अंधाधुंध गोलियां बरसाई गईं, और इसका दर्द आज भी उस क्षेत्र के लोगों के दिलों में जिन्दा है। खरसावां के पहाड़ी इलाकों में आज भी अगर किसी बुजुर्ग महिला से पूछा जाए, "क्या आप खरसावां जाएंगी?" तो उनके चेहरे पर भय साफ झलकता है। उनका जवाब होता है, "ओचा कांञा तोड़े बुए को," अर्थात "नहीं जाएंगे, हमें गोली मार देंगे।"
स्मृतियों में बसा भय
इस घटना का गहरा प्रभाव आज भी महसूस किया जा सकता है। हरिभंजा पंचायत के पताहातु गांव के निवासी सुनील हेंब्रम बताते हैं कि उनके दादा जी ने उन्हें इस घटना के बारे में बताया था। जिस जगह पर आज शहीद वेदी है, वहां पहले आम के पेड़ों से भरा बागान था और सप्ताहिक बाजार लगा करता था। आज भी वहां मौजूद आम के पेड़ उस दर्दनाक घटना के मूक गवाह हैं। सुनील हेंब्रम कहते हैं, "अगर सिंगबोंगा इन पेड़ों को आंख, कान और मुंह दिए होते, तो वे बताते कि कैसे आदिवासी पॉपकॉर्न (गंगई आता) की तरह गिर रहे थे, कैसे किसी की आंख फूट रही थी, तो किसी का सिर।" अपने दादाजी से सुनी हुई इस घटना का जिक्र बताते हुए सुनील जी की आंखें भर आती हैं।
शहीद हुए आदिवासियों की लाशों से कुएं को भर दिया गया
बुरूईगुटु गांव के निवासी नंदलाल गोप ने भी अपने बुजुर्गों से इस घटना के बारे में अपने सुने हैं। उनसे बातचीत करने पर वे बताते हैं कि "उस समय के नेता बेहद ईमानदार और संघर्षशील हुआ करते थे, जिनमें से जयपाल सिंह मुंडा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। वे खरसावां के आंदोलन में शामिल होने आए थे। उनके भाषण को सुनने के लिए दूर-दूर से लगभग 10,000 लोग पहुंचे थे। उन लोगों में से एक मेरे पिताजी भी जो कुछ गांव वालों के साथ वहां गए थे, मेरे पिताजी को आंदोलन के बारे उतना नहीं पता था, वे बस जयपाल सिंह मुंडा जी को देखने गए थे। उस समय मेरे पिताजी की उम्र 18-20 साल हो रहा होगा। मेरे पिताजी बताते हैं कि, गोलियां चलते ही लोग गिरने लगे, और हम छुपकर बचते हुए पास के खेतों के बड़े मेड़ों पर छुप गए, उस समय खरसावां से राजखरसावां के जाने वाले रास्ते के खेतों में बड़े बड़े मेड़ हुआ करते थे। कितने लोग मारे गए होंगे, इसका अंदाजा आप इसी से लगाइए कि लगभग 15-20 मिनट तक लगातार गोलियां चलती रहीं, और इसके बाद शवों को कुओं में फेंक कर कुआं को भर दिया गया। और जो लाश बच गईं उनको ट्रकों में भरकर जंगल में फेंक दिया गया।"
संघर्ष और कुर्बानी की विरासत
खरसावां गोलीकांड ने आदिवासियों के संघर्ष और बलिदान की कहानी लिखी। जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए कई लोगों ने अपनी जान गंवाई। हर साल वहां साल की पहली तारीख को शहीदों के सम्मान में शहीद दिवस मनाया जाता है। लेकिन आज, उन्हीं की संतानों को अपनी जमीन से विस्थापन और विकास के नाम पर बेदखल होना पड़ रहा है।
'दिरी दुल सुनुम': परंपरा और उपेक्षा
हर साल खरसावां में शहीदों की याद में हो समुदाय की परंपरा के अनुसार 'दिरी दुल सुनुम' किया जाता है। यह एक धार्मिक और सांस्कृतिक अनुष्ठान है, जिसमें शहीद परिवारों से अनुमति लेकर श्रद्धांजलि दी जाती है। लेकिन दुख की बात यह है कि यह परंपरा अब औपचारिकता बनकर रह गई है। नेता और मंत्रीगण आते हैं, कार्यक्रम में शामिल होते हैं, और बिना शहीद परिवारों से मिले वापस चले जाते हैं। अब केवल शहीद परिवारों की आंखों में ही आंसू हैं, जबकि बाकी लोग शहीद स्थल पर सिर्फ फोटो खिंचवाने आते हैं।
राजनीतिक बयानबाजी और आदिवासियों की पीड़ा
हाल ही में झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 के दौरान यह बयान आया कि सरायकेला-खरसावां को उड़ीसा में शामिल किया जाएगा। यह सुनकर उन शहीद परिवारों के वंशजों का दर्द बढ़ गया, जिनके पुरखों ने इस जमीन के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी।
खरसावां गोलीकांड सिर्फ एक घटना नहीं, बल्कि आदिवासी इतिहास का वह पन्ना है, जो हर साल शहीद दिवस के रूप में याद किया जाता है। लेकिन दुख की बात यह है कि शहीदों की कुर्बानी के बावजूद उनके वंशज आज भी न्याय और पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
लेखक परिचय:- झारखण्ड के रहने वाले नरेंद्र सिजुई जी इतिहास के छात्र हैं और आदिवासी जीवनशैली से जुड़े विषयों पर प्रखरता से अपना मत रखते हैं।
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