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Writer's pictureChaman Netam

जानिए छत्तीसगढ़ में मनाए जाने वाले पूर्ण ईसर गवरा महापर्व के बारे में

गोंडी संस्कृति विश्व संस्कृति की जननी मानी जाती है। व्यक्ति से परिवार और परिवार से समाज के निर्माण का अनोखा प्रारूप इस संस्कृति में मिलता है, और हर समाज की तरह इसकी भी अपनी रीति, रिवाज और परम्पराएं आदि हैं।


इसी गोंडी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने, भय और भ्रम मिटाने तथा नेग-जोग, अपनी अनोखी परम्परा को संंरक्षित करने के लिए गोंडवाना के गुरुदेव परम श्रद्धये दुर्गे भगत जी एवं करुणामयी गुरु माता दुर्गे दुलेश्वरी दाई के आशीर्वाद से तथा गोंडी धर्म संस्कृति सरंक्षण समिति, छत्तीसगढ़ एवं साथ ही सगा समाज के सहयोग से पूर्ण ईसर गवरा एंव बढा़देव महापूजन का आयोजन गरियाबंद के स्कूली मैदान में किया गया।


गरियाबंद में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर ईसर गवरा बड़ादेव महापूजन का आयोजन दशा-दिशा को सुधारने, भय, भ्रम को हटाने के लिए विशुद्ध गोंडी रीति-रिवाज एवं प्राकृतिक विधि-विधान के साथ प्रत्येक साल किया जाता है। यह एक मडमिंग (विवाह) कार्यक्रम होता है, जिसमें गोंड आदिवासी अपने ईष्ट देव ईसर राजा और गवरा दाई का विवाह इस दिन रचाते हैं। इस रस्म के लिए गोंड समुदाय के सभी ग्रामीण और सगा सम्बन्धी गवरा चौंरा के पास इकट्ठा होते हैं।

महोत्सव में शामिल होकर रश्मों को निभाया जा रहा है

इसी अवसर पर गवरा गीत भी गाया जाता है, छत्तीसगढ़ के गोंड जनजातियों का यह प्रमुख गीत है। गवरा गीत केवल गीत ही नहीं बल्कि इसमें आदिम जनों की जीवन पद्धति के बारे पता चलता है। गोंड आदिवासियों के राजवंशों का गौरवशाली इतिहास रहा है, परंतु अब छत्तीसगढ़ में इनका इतिहास जीर्ण-शीर्ण अवस्था में ही मौजूद है। इसी इतिहास की गौरव गाथा और अब की वर्तमान स्थिति के बारे में गवरा गीतों में सुनने को मिलता है।


कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष में 3 से 5 अथवा 7 दिनों तकगवरा जगाने (फूल कुचरना) का नेग होता है। गोंड समाज के सभी लोग इस गवरा जागाने का रश्म करते हैं, गवरा चबूतरे के नीचे की मिट्टी खोदकर एक मुर्गी के अंडे व एक सिक्के, उसके ऊपर बेल के डाली व पत्ता रख देते हैं, तत्पश्चात पूजा की जाती है, पृथ्वी के समस्त देवी देवताओं का अवाहन किया जाता है। पूजा के दौरान यह गीत भी सुनने को मिलता है,


"जागव जागव मोर बड़ादेव देवता आ,जागव

गोड़वाना के लोग ,जागव जागव दाई गवरा ईसर देव जागव गोड़वाना के लोग.."

पौधों की डालियों से मड़वा को सजाया जा रहा है

फुल कुचरने के बाद मिट्टी लाने का रस्म होता है, जिसे कुवांरी कन्याएं उपवास रह कर लाती हैं, गाजे बाजे के साथ यह मिट्टी लायी जाती है। इसी मिट्टी से ईसर देव एवं गवरा दाई की प्रतिमाओं को बनाया जाता है। मडमिंग स्थान(मड़वा) को भी काफ़ी सुंदर तरीके से सजाया जाता है, जिसके लिए लोग जंगल से कुछ पेड़ (वृक्ष) के शाखाओं व डाली को लाते हैं, लाने के एक दिन पूर्व पेड़ -पौधाओं को नेवता दिया जाता है। गोंड समुदाय के लोग पेड़-पौधों को विनती करके सम्मानपूर्वक लाते हैं। मड़वा को सजाने में कोया (महुआ) एवं राई जाम(जामुन) के छोटे बड़े डालियों का इस्तेमाल किया जाता है।


इसके बाद अनेकों प्रकार के रीति रिवाजों एवं परम्पराओं को निभाते हुए विवाह की रश्में यदा की जाती हैं। साथ ही साथ अलग-अलग रश्मों के विभिन्न गीतों का दौर भी चलता रहता है।


ईसर देव और गवरा दाई का विवाह बड़े धुमधाम से करने के बाद गोंड समुदाय के लोग सवेरे स्नान कर इस अद्भुत मडमिंग महोत्सव को खुशी-खुशी समाप्त करते हैं।। गरियाबंद में आयोजित हुए कार्यक्रम में अनेकों पदाधिगण एवं समाज के विभिन्न गणमान्य व्यक्ति भी उपस्थित थे। गुरू माता तिरुमय दुर्गे दुलेश्वरी जी ने अपने दिव्य संदेश में आज के गोंड युवाओं को अपने अद्भुत रीति रिवाजों एवं सम्पूर्ण संस्कृति को बचाए रखने को कहा।


आशा है गोंड आदिवासी समुदाय के लोग अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए अपने इन बेशकीमती धरोहरों को संजो कर रखेंगे।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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