राशन की दुकानों में सामान्यतः सोयाबीन की बड़ी देखने को मिलती है, कुछ-कुछ दुकानों में चना या दाल आदि के भी बड़ी देखने को मिल जाते हैं। पाक कला में आदिवासी भी बहुत निपुण होते हैं, इसका एक उदाहरण आदिवासियों के द्वारा बनाई जाने वाली रखिया बड़ी को देखकर मिल जाता है।
इस बड़ी को बनाने में सफ़ेद कोंहड़ा का इस्तेमाल किया जाता है। इस बड़ी को ठंड के मौसम में बनाया जाता है, क्योंकि बरसात के समय लगाए गए कोंहड़े इसी वक्त तैयार ही जाते हैं। सफ़ेद कोंहड़े को तोड़कर ज़्यादा दिनों तक रखने से वो खराब हो जाता है, ऐसे में यदि बड़ी बना ली जाए तो उसका उपयोग महीनों तक किया जा सकता है। बड़ी बनाने के लिए सफ़ेद कोंहड़े के साथ भिगो कर पिसे गए उड़द दाल को मिलाकर सुखाया जाता है। आदिवासी घरों में जब ताज़े सब्जी की कमी होती है तब इस बड़ी की स्वादिष्ट सब्जी बनाई जाती है। बीमार लोगों के लिए रखिया बड़ी की सब्जी अत्यंत लाभदायक होती है क्योंकि इससे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बल मिलता है। जिनके घरों में गर्भवती महिलाएं होती हैं, उनके घरों में तो यह सब्जी जरूर बनती है, इस सब्जी के सेवन से गर्भ के दौरान होने वाली कमजोरी दूर होती है। आदिवासी इस बड़ी को बहुत ही सावधानी से बनाते हैं, क्योंकि अगर यह बड़ी खराब हो गयी और उसमें कीड़ें पड़ गएँ तो इसे बहुत ही अशुभ माना जाता है। जिसके शुद्धि के लिए दशगात्र जैसे नियम करने पड़ते हैं, साथ ही बकरा भात भी खिलाना पड़ता है। इसीलिए जब आसमान में बादल छाए रहते हैं, उस वक़्त इस बड़ी को नहीं बनाया जाता है।
जब इस रखिया बड़ी में कीड़े पड़ जाते हैं, वैसे तो उसे सबसे पहले घर के लोग ही देखते हैं लेकिन इस बात को किसी से छुपाया नहीं जाता है। यह मान्यता है कि, यह बात छुपाने पर उस परिवार को बाद में ज्यादा परेशानीयों का सामना करना पड़ता है। इस बात को सबसे पहले अपने गाँव के और अपने ही समाज के लोगो को बताया जाता है। ताकि लोग उन्हें शुद्धिकरण के उपाय बताएँ और उनका साथ दें, शुद्धि होने तक उनके हाथ का कोई कुछ नहीं खाता है, वे खुद भी अपने घर से खाना निकाल कर नहीं खा सकते हैं, उस समय गाँव के ही अपने जात बिरादरी के लोग खाना बना के देते हैं, और साथ ही साथ गाँव के अपने जाति के सभी लोगों को बकरा भात खिलाया जाता है। इस शुद्धि करण का कार्य को सिर्फ़ रविवार के दिन ही किया जाता है। अगर किसी के पास तत्काल में इतना खर्च करने के लिए धन या समान नहीं होता है, तो उसे समान एकत्रित करने का समय दिया जाता है। उस वक़्त तो घर के लोग किसी और के घर जाकर तो खा सकते हैं, लेकिन उनके घर आकर कोई नहीं खा सकता है और ना ही वह किसी सामाजिक कार्य में खाना परोस सकता है, पर जैसे ही उसके पास समान एकत्रित हो जाता है तो उसे बकरा भात खिलाना ही पड़ता है, यह समाज का नियम है।
इसके शुद्धि के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य नाई और धोबी का होता है, नाई उस घर के सभी पुरुषों का मुंडन करता है और धोबी को घर के कपड़े धोने के लिए दिए जाते हैं, जो कि दशगात्र में किया जाता है, इस कार्य के एवज में वे पैसे, चावल, दाल आदि लेते हैं। कटे हुए बकरे का सिर भी वे ले जाते हैं।
झोरा गाँव की अशोक बाई कंवर बताती हैं कि, "रखिया बड़ी को सब्जी बना कर खाने से बहुत फायदे होते हैं, खाने में ये बड़ी बहुत स्वादिष्ट होते हैं। इस बड़ी को आलू या बरबट्टी के सूखे दाने या मुनगा के साथ मिलाकर खाया जा सकता है, इससे इसका स्वाद और भी बढ़ जाता है।"
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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