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Writer's pictureChaman Netam

आओ चलें एक कदम पारंपरिक गोंड़री की ओर

पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित


गोंड़ आदिवासी समुदाय का अहम हिस्सा गोंड़री, कोयातुर गण्ड जीव का कृषि प्रणाली, आरंभिक काल से कोयतुरों के जीवन शैली का हिस्सा रहा है। गोंड़री पद्धति से कृषि क्षेत्र में विस्तृत होने से आदिवासी समाज में कृषि करने की ओर रुख बड़ा। भारत देश कृषि प्रधान देश है, जहां अनेक तरह के कृषि कार्य होते हैं। जिससे देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलती है। गोंड़री को क्षेत्र अनुसार अलग नामों से जाना जाता है जैसे- गुडा, गोरला, वेलुम, कोलकी, बकरी, बाड़ी, कोलकी, किचन गार्डन आदि।


गोंड़री टेक्नोलॉजी में विस्तृत रूप से अध्ययन करने में यहां ज्ञात होता है कि, आदिवासियों द्वारा आरंभ किया हुआ कार्य आज वृहद स्तर पर पहुंच गया है। परिवेश जैसा भी हो, किन्तु आदिवासियों ने गोंड़री (बाड़ी) को पारम्परिक ढ़ंग से किया। आज भले ही क्यों न वैज्ञानिक तकनीकी से कृषि क्षेत्र में विकास देखने को मिला है। इसका श्रेय विश्व के आदिवासियों को मिलना चाहिए।


क्या आज भी आदिवासियों की गोंड़री पुर्ण रुप से प्रकृति सम्मत होता है? यह एक बड़ा प्रश्न है। क्योंकि, आधुनिक युग में कृषि प्रणाली रासायनिक खाद और कीटनाशकों पर निर्भर है। और उगने वाले फसल, सब्जी व फल कम समय (फार्म में) में तैयार होकर बाजार से गांव तक पहुंचते हैं। जिसमें केमिकल मिला होता है। ऐसी सब्जियों में विटामिन या पोषक तत्व मिल पाना मुश्किल है।


मानव जीवन संसाधन से जुडी है, उसे बेहतर बनाने के लिए अनेक योजनाएं बनाई जाती हैँ। परन्तु, स्वास्थ्य की बात करें तो इस पर विचार बहुत ही कम लोग करते हैं। स्वास्थ्य शरीर की पहचान है, संतुलित आहार, बेहतर भोजन और अच्छी दिनचर्या। ताकि, हमारी सेहत तंदुरुस्त रहे।


गोंडरी टेक्नोलॉजी को वर्तमान में दो प्रकार के बाड़ी में विभक्त करते हैं:


(१) पारम्परिक गोंड़री

(२) आधुनिक गोंड़री


पारम्परिक गोंड़री पर नजर डालें तो, यह गोंड़री आदिवासियों द्वारा पारम्परिक ढ़ंग से किये जाने वाला कार्य है। यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरण करते हुए प्रकृति सम्मत होता है। एक दुसरे के ऊपर निर्भर रहना, कोयतुर समुदाय का एक ऐसा कार्य है। जिसको करते हुए शिक्षित व स्वंलबन बनने की ओर रुख होता है।

गोंड़री में लगे पेड़-पौधे

आदिवासियों की गोंडरी टेक्नोलॉजी में आज से कुछ समय पीछे जाये तो, आदिवासी समुदाय की गोंडरी टेक्नोलॉजी में बहुत ही बेहतरीन तरीके से सब्जीयों का कियारी देखने को मिल सकता है। आस-पास में उपयोगी पेड़-पौधे, जड़ी-बूटी आदि आदिवासियों के गोंड़री टेक्नोलॉजी इतनी बेहतरीन तरीके से कैसे हो सकता है, यह सोचने वाली बात है।


आदिवासी अपने पुरखों के बताए मार्ग पर चलते हुए जीवन-यापन करते हैं और अपने लोन (घर) में पशुपालन भी करते हैं जैसे - गाय, बैल, भैंस, बकरी, मुर्गी, सुअर, खरगोस, बतख, घोड़ा, कुत्ता, बिल्ली आदि। इन सभी पशुओं के मल (खाद) को अपने बाड़ी में डाल दिया जाता है। जिससे जमीन की उर्वरवरक शक्ति बढ़ जाती है और जमीन उपजाऊ हो जाती है, बिना रासायनिक खाद डाले। अच्छी पैदावार व फ़सल, कुदरती तौर तरीकों से बेहतर होती है। आदिवासी अपने बाड़ी में मौसमी साग-सब्जीयां जैसे- आलु, टमाटर, भाटा, गोभी, भिन्डी, धनिया, मिर्च, प्याज, लोकी, माखना, मुली, लहसुनियां, मेथी, पालक भाजी, कादां, तोरई, सुनसुनीया सेमी, भतुवा आदि व फल लगाते हैं।


पेड़-पौधों में आम, अमरुद, इमली, केला, कटहल, पपीता, सल्फी (गोरगा), आंवला, मुनगा, बेर, सीताफल, राईजाम, सीतफल, निंबु, नारियल व अन्य फलदार वृक्षों के साथ में आयुर्वेद से जुड़ी जड़ी-बूटीयां भी लगाई जाती है।


कुएं से पानी निकालने के लिए टेक्नोलॉजी:


१. टेडा, धीर (मछली पकडने)

२. चोरिया (वर्तमान समय में मोटर पम्प)


गोंड़री में बहुत ज्ञान वर्धक बातें छिपा हुआ है और इसे समझने की आवश्यकता है। आदिवासियों की टेक्नोलोजी प्रकृतिवादी होने के साथ-साथ विज्ञान सम्मत है। जब ना मौसम विभाग था, ना वैज्ञानिक थे। तब, हमारे पुरखों (दादाओं) ने तकनीकी विकसित कर लिया था। 'भिमा लिंगों' मौसम के पुर्वनुमान गोंडरी टेक्नोलॉजी में समाहित है। जीव-जन्तु को देखकर मौसम का स्पष्ट अनुमान लगाया जाता था। चींटी, पौधे, पुत्ती (बम्बी, भिभोंरा) चींटीयों का कब भोजन बील पर इक्काटा करना, चिंटियों के रेंगने के तौर-तरीकों से, अण्डे से नये चिंटियों का उत्पन्न होना, पेड़-पौधों पर कब नए पत्ते का आना, पुत्ती पर दीमक ऊपर की ओर आना आदि यह सब प्रकृती के संकेतो से आदिवासी भली-भांति परिचित हैं।

गोंड़री में धनिया, भाटा और टमाटर लगा हुआ है

औषधीय गुण का केन्द्र गोंड़री है। गोंड़री पशुपालन का केन्द्र है, साग-सब्जी का केन्द्र है, गोंड़री में टोटम सिस्टम पड़ा हुआ है। गोंड़री में सब कुछ है, गोंड़री खुशीयों और स्वास्थ्य का केन्द्र है। विज्ञान से लेकर मनोरंजन का केन्द्र भी गोंड़री है। आदिवासियों की गोंड़री टेक्नोलॉजी में हमें यह सिख मिलती है कि, कम बजट में अच्छी पैदावार व उन्नत खेती-बाड़ी, रासायनिक खादों से कोसों दूर होकर आर्गेनिक खाद्य-पदार्थ ऊपजा सकते हैं।


आधुनिक बाड़ी में बड़े-बड़े फार्म लगा कर खेती किया जाता है। यहां वैज्ञानिक तकनीकी से कृषि करते हैं और उन्नत बीज का चयन कर रोपन किया जाता है। पानी की खपत को देखते हुए, पाइप के माध्यम से पेड़ों तक पानी पहुंचाया जाता है। पेड़-पौधे जैसे ही तैयार होते हैं, उसके बाद रासायनिक खाद डालना शुरू हो जाता है। केमिकल का छिड़काव कर, फसलों को तैयार किया जाता है। फल जैसे ही लगते हैं तो, छिड़काव कर जल्द ही सब्जी या फल को मंडी के व्यापारी के माध्यम से लोगों के घर तक पहुंचाया जाता है। आपके जानकारी के लिए यह बता दें कि, रासायनिक छिड़काव का असर एक हफ्ता तक सब्जीयों में रहता है। यदि, 70 प्रतिशत कीटनाशक की मात्रा हो तो, सब्जी को पानी में धोने से भी पुर्ण रुप से नहीं हटती। उसे पकाने के बाद भी कुछ मात्रा बच जाती है। और हम उन सब्जियों को हर रोज भोजन में शामिल कर रहे हैं, सोचिए जरा?


आधुनिक युग में मनुष्य की औसतन आयु हर रोज घट रही है। आखिर, क्या कारण हो सकता है? पहले के व्यक्ति भी दाल, चांवल भोजन ग्रहण करते थे और आज के लोग भी वही भोजन ग्रहण करते हैं। अब तो चिकित्सा विज्ञान ने अनेक गंम्भीर बिमारियों की अचुक तोड़ खोज निकाली है, तो लोग बिमारियों से ग्रसित क्यों है? इन सभी का कारण क्या है? आप सभी तर्क करें।


मुझे लगता है आज हम जिस परिवेश में हैं, २१ वीं सदी में विकास की दौड़ है। लेकिन, हम जितना डिजीटल क्यों न हो जाये। प्रकृति को क्या डिजीटल कर सकते हैं? नहीं न। क्या आज हम सबको शुद्ध आक्सीजन मिल रहा है? शुद्ध आहार मिल रहा है? शुद्ध पेयजल मिल रहा है? क्या आने वाली पीढ़ी के लिए हम प्रकृति को संरक्षित कर रहे हैं? क्या आप गोंड़री टेक्नोलॉजी को संरक्षण करने के बारे में सोच रहे हैं? आज गोंड़री को पुर्ण जीवित करने की जरूरत है। गोंड़री टेक्नोलॉजी को भावी पीढ़ी को शिक्षित कर समझाने की जरूरत है? आओ चलें गोंड़री टेक्नोलॉजी की ओर…बस एक कदम पारम्परिक गोंड़री की ओर।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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