आदिवासी हमेशा से ही जंगलों से मिलने वाली चीज़ों पर निर्भर रहे हैं, जीवन जीने की ज्यादातर चीज़ें उन्हें जंगलों से प्राप्त हो जाया करती है। उन्हीं में से एक है, जंगल में पाए जाने वाले कंद-मूल। वैसे तो जंगलों में बहुत सारे कंद मिलते हैं लेकिन कुछ प्रमुख कंदों का प्रयोग न सिर्फ़ अपने खाने के लिए किया जा सकता है बल्कि उन्हें बेचकर आमदनी भी प्राप्त की जा सकती है। ऐसा ही एक बहुउपयोगी कंद है जिसे आदिवासी कड़वा कांदा के नाम से जानते हैं। ग्राम सिरकी कला के कुछ लोग तो इस कड़वा कांदा को उबालकर बेचने भी जाते है और इसको खरीदने वाले भी बहुत होते है।
जंगलों और पहाड़ों के किनारे बसे हुए आदिवासी जंगलों में मिलने वाली कंद के बारे अधिक जानकारी रखते हैं। जब मैंने ग्राम सिरकी कला के कार्तिक राम कंवर से पूछा तो उन्होंने बताया कि "मैं हर साल बरसात के बाद ठंडी के समय पहाड़ से कड़वा कांदा लेकर आता हूँ, जो कि बहुत अच्छा कंद है लेकिन इस कंद को लाने में भी दिक्कत होती है क्योंकि ये पहाड़ पर बहुत दूर में मिलता है। यह कंद ज़मीन के अंदर होती है और इसके नार से पता लगाया जाता है कि ये कंद कहाँ पर है, ये कंद जड़ में होती हैं। ग्राम सिरकी कला की ही शीला बाई कंवर बताती हैं कि "मैं हर साल की तरह इस साल भी कड़वा कांदा बेचने जाती हूँ एक दिन में 400 से 500 रुपए या कभी-कभी तो इससे ज्यादा के कड़वा कांदा बेच लेती हूँ। इन पैसों से मेरी आर्थिक ज़रूरतें पूरी होतीं हैं। मज़दूरी/काम मिल पाना गाँव में मुश्किल होता है इसलिए पहाड़ों और जंगलों से ही हमें पैसे मिल जाते हैं जैसे कि, अभी कांदा बेच रहे हैं फ़िर महुआ का दिन आएगा तो उससे भी बहुत मुनाफा होता है, फिर गर्मी में तेंदू पत्ता और चार से रोजगार मिल जाता है।"
कड़वा कांदा जैसे अनेक कंद पाए जाते हैं, कुछ घरों के पास बाड़ी वगैरह में उगते हैं तो कुछ जंगलों में, जैसे गेठोरा कांदा, उपका कांदा, कड़वा कांदा आदि। इन तीनों कांदों को अलग-अलग तरीके से, या तो उबाल कर या भून कर खाया जा सकता है। आइये इन कंदों के बारे कुछ विस्तार से जानते हैं।
कड़वा कंद - इस कंद के नाम से ही पता चल रहा है कि ये कंद कड़वा होगा, लेकिन अगर सही तरीके और नियम से उबालें तो ये कंद खाने में बहुत अच्छा लगता है। कड़वा कंद को अच्छे से धोने के बाद पतला-पतला काट लिया जाता है, जिससे यह ठीक से उबल जाए, यह कंद 1 घंटे के अंदर उबल जाता है। कड़वा कंद को लकड़ी के राख से मिलाकर उबालते हैं और फ़िर रात भर राख के साथ रहने देते हैं, जिससे इसकी पूरी कड़वाहट निकल जाती है। अगले दिन उसको अच्छे से धो कर सुखी महुआ के साथ उबाला जाता है, जिससे उसमें मीठापन आ जाता है। लेकिन उबालते समय यह ध्यान में जरूर रखें कि चूल्हे के आग को बुझने पर मुंह से फूंकना नही है, क्योंकि आदिवासियों का मानना है कि फूंकने पर यह कंद और भी कड़वा हो जाता है, यह कंद पाचक का काम करता है, ऐसा आदिवासियों का मानना है।
गेठोरा कंद - गेठोरा कांदा बाड़ी में मिल जाता है, इस कंद के भी नार होते है लेकिन ये कांदा कड़वा कांदा की तरह ज़मीन के अंदर नहीं होता है बल्कि ये नार के बीच बीच में फलता है। इस कांदा को भूनकर और उबालकर भी खाते हैं, इसके साथ ही इसकी सब्जी भी बना कर खा सकते हैं, जो कि बहुत अच्छा लगता है।
उपका कांदा - इस कांदे को एक हाथ की गहराई में लगाया जाता है जिसे तीन साल बाद खोद कर निकाल देते हैं, इस कांदे को तीन साल से अधिक दिनों तक नहीं रखते हैं। कहा जाता है कि तीन साल से अधिक दिनों तक रहने से मनुष्य की तरह उसके हाथ पैर बन जाते हैं, इस कांदे को भी उबालकर खाया जाता है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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