वनांचल आदिवासी क्षेत्रों में ऐसे अनेकों प्रकार के आयुर्वेदिक भाजी मिलते हैं जो औषधीय गुणों से भरपूर होते हैं। उन्हीं में से एक है यह यह भाजी जिसे आदिवासी गुमी भाजी के नाम से जानते हैं। इस भाजी के उपयोग से पाचन संबंधी समस्याएं, पित्त की समस्याएं तथा शरीर मे आई कमजोरी दूर होती है।
यह भाजी एक तरह से खरपतवार है जो या तो अन्य सब्जियों के साथ उग जाती है, या फ़िर नदी-नालों के किनारे अपने आप उग जाया करती है। इसकी पत्तियों के बीच में लकीर दार लाइन रहती है जिसे छूने से खुरदुरा प्रतीत होता है, छूने के बाद हाथ से सुंगध भी आने लगता है, जिस प्रकार तुलसी पौधे की पत्ती को छूने से सुगंध आने लगता है।
इस आयुर्वेदिक भाजी को तोड़ने के बाद अच्छे से पानी में धोकर कड़ाही पर मात्रा अनुसार पानी लेकर उसमें उबाला जाता है, जिससे उसका जो हरापन और हल्का कड़वापन होता है वह निकल जाता है, फ़िर उसको अच्छे से लहसुन या मिर्च का तड़का देकर पकाते हैं। पकने में ज्यादा समय नहीं लगता है क्योंकि वह पहले से उबला हुआ रहता है, फ़िर उसमें टमाटर डालकर पकाते हैं और आधा घण्टा पकाने के बाद इसे खाया जाता है। इसे सुखाकर भी रखा जा सकता है और फ़िर बाद में इसका उपयोग किया जा सकता है। बिना मेहनत के उगने वाली यह भाजी न सिर्फ़ खाने में ही उपयोगी है बल्कि इसे हाट-बाज़ारों में बेचकर आसानी से कुछ आमदनी भी की जा सकती है।
वनांचल क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी अधिकतर प्रकृति में उपस्थित वस्तुओं का ही प्रयोग में लाते हैं, उन्हें प्रकृति से निःशुल्क खान-पान की सामग्री मिल जाती है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में पाए जाने वाली लगभग सभी भाजियां औषधीय गुणों से भरपूर होती हैं। जैसे- गुमी भाजी, भतुवा भाजी, सोल भाजी, सुंसुनिया भाजी इत्यादि। इन्हें खाकर आदिवासी रोग मुक्त जीवन व्यतीत करते हैं l
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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