top of page
Ratna Agariya

जानिए छत्तीसगढ़ के आदिवासी, पारम्परिक तरीके से कैसे धान मिसाई करते हैं?

आधुनिकीकरण ने मानवों को बदलने पर विवश कर दिया है, सभी लोग तेज़ी से आधुनिक तकनीकों को अपना रहे हैं। परंतु आज भी आदिवासी समुदायों में अभी भी पारम्परिक ज्ञान बचा हुआ है। इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण अभी ठंड के मौसम में देखा जा सकता है। नवंबर खत्म होते-होते छत्तीसगढ़ में धान की कटाई शुरू हो जाती है। आदिवासी किसान अपने खेतों से धान काटकर खलिहानों में ले आते हैं। खलिहानों में शुरू होता है धान से पैरा/पुआल अलग करने का कार्य। आजकल कुछ लोग इसके लिए मशीनों का उपयोग करते हैं, कुछ लोग मज़दूर लगाकर धान की पिटाई करवाते हैं। पर कुछ ऐसे भी हैं जो अपने पशुओं का इस्तेमाल कर धार की मिसाई करवाते हैं।


प्राचीन काल से ही पशुओं के द्वारा धान की मिसाई किया जा रहा हैl धान मिसाई का कार्य घर के आँगन (कोठार) में किया जाता है। इस स्थान को पहले मिट्टी से बराबर करके गोबर से लिपाई किया जाता है, फ़िर बीचों बीच लकड़ी का एक बड़ा सा खूँटा गाड़ा जाता है, इसे मेड़ खूँटा या मुख्य खूँटा कहा जाता है। उसी खूंटे के चारों ओर धान को फैला दिया जाता है फ़िर उसमें बैलों को बाँधकर धान के ऊपर उन्हें घुमाया जाता है।

पशुओं द्वारा धान मिसाई किया जा रहा है

बैलों को बांधने के लिए एक विशेष प्रकार की रस्सी का प्रयोग किया जाता है। जो की 5, 6 या 12 बैलों के हिसाब से और आंगन के अनुसार बना रहता हैl इसी में पशुओं को घुमाया जाता है और पीछे से एक व्यक्ति इन बैलों को हाँकते रहता है। एक बार में फेंका (बिखरा धान) की मिसाई में अधिकतम 2 से 4 घंटा का समय लगता है। मिसाई में लगा समय धान के किस्म पर भी निर्भर करता है। पैरा से धान का झड़ने के बाद बैलों को खोल दिया जाता है, और फ़िर पैरा तथा झड़े हुए धानों को अलग कर लिया जाता है। मिसाई के बाद निकले धानों को सुप से साफ़ कर के उन्हें कोठी में सुरक्षित रख लिया जाता है।


मिसाई से अलग हुए पैरा गाय-बैल का आहार बनते हैं, जो पैरा मशीनों द्वारा अलग किया जाता है, उसमें ईंधन की गंध होती है जिसकी वजह से पशु उन पैराओं को नहीं खाते हैं। आदिवासियों द्वारा पारम्परिक तरीके से धान की मिसाई करने का यह भी एक मुख्य कारण है। गाँव के कुछ लोगों से बातचीत करने पर उन्होंने बताया कि, मशीन द्वारा मिसाई किये हुए धान के चवाल में भी गंध होती है, जिससे चावल का स्वाद बिगड़ जाता है। जबकि परंपरागत तरीके से पशुओं द्वारा किए गए मिसाई में ऐसा कुछ भी नहीं होता। मिसाई के इस तरीके में आदिवासियों के जीवन में पशुओं का महत्त्व भी पता चलता है।


इस आधुनिक दुनिया में मशीनों के इस्तेमाल की वजह से पूरी दुनिया दूषित हो रही पर्यावरण की समस्या से परेशान है, वहीं आदिवासियों के सरल पारम्परिक ज्ञान में इस समस्या का आसान सा समाधान मिलता है।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

Comentários


bottom of page