आदिवासियों की यह खासियत रही है कि उन्होंने अपने जीवनशैली को पर्यावरण के अनुकूल बना रखे हैं। स्वंय के शरीर की बीमारियों से लड़ना हो या अपने फसलों की बीमारियों से, सभी का इलाज वे प्राकृतिक रूप से ही करते आए हैं। प्राचीन काल से आदिवासी अपना भोजन लकड़ियों और कंडो (गोबर के उपले) को जला कर पकाते आ रहे हैं, साथ ही जलने के बाद इनके बचे हुए राख का भी उपयोग कई तरीकों से किया जाता है और इसके बहुत सारे लाभ भी हैं।
सामान्यतः ग्रामीण आदिवासी ही अधिकतर लकड़ी और कंडे का उपयोग खाना बनाने के लिए करते हैं, हालांकि अब प्रत्येक घर में उज्ज्वला योजना के तहत गैस सिलेंडर दिया गया है, लेकिन हर समय सब के पास पैसे नहीं होते हैं। ग़रीबी के कारण अक्सर ग्रामीण आदिवासी गैस सिलिंडर रिफिल नहीं करवा पाते हैं। ऐसे में ये लोग लकड़ी और कंडे का उपयोग खाना बनाने के लिए करते हैं जो उन्हें जंगलों में आसानी से मिल जाते हैं। जली हुई लकड़ी और कंडे से जो राख मिलता है उसको ऐसे ही नहीं फेंका जाता है बल्कि आदिवासी इसका कई तरीके से उपयोग में लाते हैं। जब पौधे की पत्तियों, फुलों या फलों को कीड़े की वजह से नुकसान हो रहा होता है और यह पौधे को विकसित नहीं होने दे रहा होता है, तो इस राख को पौधे के ऊपर आदिवासी छिड़काव करते हैं जिससे उसमें बैठे कीड़े निकल जाते हैं। आज कल अत्यधिक तेल से सब्जी या अन्य पकवानों को बनाया जाता है जिससे बर्तन आसानी से साफ़ नहीं होते हैं। जिसको साफ़ करने के लिए दुकानों से वीम बार जैसी अनेक साबुन को खरीद कर लोग इस्तेमाल करते हैं जिससे बर्तन जल्दी साफ़ हो जाती है, लेकिन जब यह साबुन नहीं था, तब गाँव के लोग बर्तन धोने के लिए राख, मिट्टी का ही इस्तेमाल करते थे और कई घरों में तो आज भी इसका उपयोग किया जाता है।
ग्राम झोरा के एक बुजुर्ग कार्तिक राम कंवर जी का कहना है कि "लकड़ियों के राख को हम खाद के रूप में उपयोग करते हैं, लकड़ियों और कंडे के राख का सबसे ज्यादा उपयोग साग सब्जी के लिए किया जाता है। जब सब्जी नहीं लगाए रहते हैं तो उस समय इस राख को रोजाना बोरी में भरते जाते हैं, ताकि भविष्य में काम आ सके। सब्जियों में जब कोई बीमारी आ जाती है या कीड़े पड़ जाते हैं तब भारी नुकसान होता है, उसी समय इस राख को उन पौधों पर डालते है जिससे पौधे बच जाते हैं और इससे पौधे को किसी प्रकार का नुकसान भी नहीं होता है, अगर हम रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग करते हैं तो उसको खरीदने के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती है और साथ में वह हमारे दूसरे पौधों के लिए नुकसानदायक भी होता है, कभी-कभी रासायनिक खादों से पौधे मर भी जाते हैं।" कार्तिक राम कंवर की पत्नी श्याम बाई कंवर का कहना है कि वे इस राख का उपयोग हमेशा बर्तन धोने के लिए करती हैं, वे कहती हैं कि "राख में थोड़ा सा निरमा पावडर डाल कर बर्तन साफ़ करती हूँ जिससे बर्तन साफ़ हो जाते है। लकड़ी से खाना बनाने पर बर्तन के निचले सतह पर अत्यधिक काले पड़ जाते हैं इसलिए खाना बनाते समय राख को गीला करके बर्तन के निचले सतह में अच्छे से लगा देते हैं जिससे धोने के समय कालापन जल्दी निकल जाता है।"
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
댓글