साल का पेड़ और उसके पत्ते कई राज्यों के आदिवासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसे सराई का पेड़ भी कहते हैं, जिसकी छत्तीसगढ़ में बहुत उपयोगिता है। लोग इस पेड़ को पूजनीय मानते हैं।
यह पेड़ बहुत बड़ा होता है और इसकी लकड़ी बहुत भारी होती है। इसलिए इसका उपयोग घर की कई चीज़ों को बनाने के लिए किया जाता है।
चाहे घर में लगाने के लिए लकड़ी हो (कड़ेरी) या दरवाज़े और खिड़कियां बनानी हों, इस लकड़ी से हर तरह का सामान बनाया जाता है।
घर में लकड़ी जलाने के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है। इन सब उपयोगिताओं में से और एक उपयोगिता यह है कि साल के पत्तों से दोना और पत्तल बनाए जाते हैं।
छत्तीसगढ़ में पत्तल में खाना खाया जाता है और इसे यहां पत्री बोलते हैं। इसमें सब्ज़ी भी रखी जाती है, जिसे दोना कहते हैं। दोना और पत्तल बनाने के लिए साल के वृक्ष से पहले पत्ते तोड़कर लाते हैं।
बांस की लड़की भी लाई जाती है, जिसे पतले-पतले हिस्सों में काट लेते हैं। यह बांस के टुकड़े धागे का काम करते हैं और इसी से साल के पत्तों को सिलाया जाता है। दोना को बड़ा बनाते है ताकि भोजन ना गिरे। दोना की सिलाई ऐसे ही होती है।
पर्यावरण के अनुकूल दोना पत्तल
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साल के पत्ते तोड़ते हुए। फोटो साभार- राकेश नागदेव
ऐसे पत्तों से बने दोना पत्तल का फायदा यह है कि ये पत्ते गाँव के जंगलों में आसानी से मिल जाते हैं जिन्हें घर पर बना सकते हैं। यह बनाने के लिए हुनर और मेहनत की ज़रूरत होती है। आदिवासी बखूबी अपने आसपास के मिलने वाले सामग्रियों का उपयोग करना जानते ही हैं।
यह पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद है, क्योंकि इससे पर्यावरण प्रदूषित नहीं होता है। खाना खाने के बाद सभी दोना पत्तल को एक जगह इकट्ठा करते हैं और यह बरसात के दिनों में सड़कर खाद बन जाता है। इस खाद का उपयोग लोग अपने खेतों में करते हैं।
इसका उपयोग बड़े पैमाने पर त्यौहारों और शादियों में भी किया जाता है, जहां मेहमानों की अधिक संख्या के साथ-साथ कचरा भी ज़्यादा होने की सम्भावना होती है। बाज़ार से थालियां खरीदने के बदले में लोग साल के ये दोने और पत्तल बनाना पसंद करते हैं। बाज़ार से ये चीज़ें खरीदना महंगा काम है और दोना-पत्तल से पैसे भी बच जाते हैं।
आज की प्लास्टिक की दुनिया में लोग कई इलाकों में प्लास्टिक के छोटे-छोटे बर्तन खरीदते हैं। इससे पर्यावरण, पशुओं, नदियों के साथ-साथ हमारी भी हानी होती है। ऐसे लोगों को जो प्लास्टिक इस्तेमाल करते हैं, गाँव वालों से सीखना चाहिए कि हम अपने जीवन पर्यावरण की सुरक्षा के हिसाब से कैसे जिएं।
कई आदिवासी गाँवों में यह परंपरा होती है कि अगर गाँव में कोई काम होता है, चाहे वह किसी के घर में शादी हो या त्यौहार या कुछ बनाना हो, पूरा गाँव मदद करने के लिए हाज़िर होता है।
चाहे लकड़ी लाना हो, चाहे पत्तल तोड़ना हो या कुछ और। गाँव के सभी लोग इसमें निपुण होते हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग एक-दूसरे की मदद करते आ रहे हैं।
सरकार को देना चाहिए दोना-पत्तल पर ध्यान
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दोना और पत्तल। फोटो साभार- राकेश नागदेव
सरकार को भी दोना-पत्तल को आगे बढ़ाने के बारे में कुछ सोचना चाहिए, क्योंकि शहरों में इसकी बहुत ज़रूरत है। लोग प्लास्टिक से बने बर्तनों का उपयोग करते हैं। अगर हम गाँवों में दोना-पत्तल का उत्पादन करते हैं, तो इसे गाँव के लोगों को भी रोज़गार मिल सकता है।
सरकार को गाँव के लोगों को ट्रेनिंग देने की ज़रूरत है ताकि गाँव जागरूक होकर अपने पैरों पर खड़ा हो सके। इसके अलावा प्लास्टिक के बर्तनों पर कड़ाई से प्रतिबंध लगाना चाहिए और उसे लागू करना चाहिए जिससे हमारा पर्यावरण भी बचा रहे और हम भी बचे रहें।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाज सेवी संस्थान’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
लेखक के बारे में- राकेश नागदेव छत्तीसगढ़ के निवासी हैं जो मोबाइल रिपेयरिंग का काम करते हैं। वो खुद की दुकान भी चलाते हैं। उन्हें लोगों के साथ मिल जुलकर रहना पसंद है और वो लोगों को अपने काम और कार्य से खुश करना चाहते हैं। उन्हें गाने का और जंगलों में प्रकृति के बीच समय बिताने का बहुत शौक है।
यह लेख पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था
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