हम सभी जान रहे हैं, कि आजकल कई तरह से विवाह संपन्न होते हैं, लेकिन अनेक आदिवासी समुदायों में आज भी पुराने रीती रिवाजों से ही विवाह किया जाता है। अभी के दौर में जैसे-जैसे उन्नति होते जा रही है, वैसे ही सभी लोग अपने पुराने रीति रिवाजों को भूलते जा रहे हैं लेकिन कई समाज में ऐसा होता है कि, वे पुराने रीति-रिवाजों से ही शादी करना पसंद करते हैं। हालांकि आधुनिकता तेजी से अपना पैर पसार रही है और लोगों की परम्पराएं भी बदल रही है लेकिन आज भी वनांचल क्षेत्र में यह देखा गया है की हल्दी और चावल से ही पूरे गाँव वालों को न्योता दिया जाता है। विवाह आदि कार्यक्रमों में आदिवासी आज भी अपने पुरखों के परम्पराओं का पालन करते आए हैं।
पोंडी ब्लाक के अंतर्गत आने वाला एक गाँव है पुटुवा,यहाँ गोंड जनजाति के लोग रहते हैं। हमने गोंड आदिवासियों केपुराने रीति-रिवाजों के बारे में एक आदिवासी महिला जिनका नाम सीता बाई है उनसे चर्चा किए तो उन्होंने हमें बताया कि यह एक ऐसा गाँव है जहाँ पुराने रीति-रिवाजों से आज भी सभी कार्यक्रम को संपन्न कराया जाता है, हमारे जो पुराने रीति रिवाज हैंवह सिर्फ विवाह तक ही सीमित नहीं हैं। गाँव कि अन्य महिलाओं ने गोंडी विवाह से जुड़ी हुई और भी रिवाजों के बारे बताया। आज भी विवाह समारोह में मिट्टी का बना कलश का इस्तेमाल होता है जिसे गोबर द्वारा सजाया जाता है। उसी प्रकार मिट्टी का बना चौक जिसमें मक्का के बीज का प्रयोग कर सजावट करते हैं। यह गोंड आदिवासियों का एक नियम होता है जिसमें प्रकृति से प्राप्त चीजों का ही प्रयोग कर सजावटी समान बनाया जाता है। उसी प्रकार चावल को रंग-बिरंगा बनाकर सजावटी के लिए प्रयोग करते हैं।
सबसे पहले चावल को भींगाया जाता है फ़िर उसमें हल्दी और चूना डालकर मिलाते है, जिससे संतरे रंग का चावल बन जाता है, उसी प्रकार पत्ते को पीसकर उसके रस को चावल में डालकर हरे रंग का चावल बनाते हैं। इसी प्रकार सात रंग का चावल बना कर चौक को सजाया जाता है इस तरह का सजावट पुराने जमाने से चला आ रहा है। आदिवासी विवाह संपन्न कराने से पहले प्रकृति की पूजा करते हैं और आशीर्वाद लेते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों के आदिवासी ज्यादातर पुराने रीति-रिवाजों के द्वारा ही विवाह कराते हैं। उन आदिवासियों का मानना है कि, पुराने जमाने से चले आ रहे रीति-रिवाजों को खत्म करना आदिवासियों के अस्तित्व को खत्म करने के बराबर होगा।
कुछ दशकों में मनुष्य के जीवन के साथ-साथ उनके रहन-सहन, बोलचाल, उनकी संस्कृति में भी बदलाव देखने को मिला है। जो हमारे जीवन का हिस्सा नहीं था। हम यह कह सकते हैं कि हमें अपनी पुरानी रीति-रिवाजों को भूलना नहीं चाहिए, बल्कि उसे हमें हर कार्यक्रम में अपनाना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पुराने रीति-रिवाजों को देखते हुए ही बड़े हुए हैं। इनको अपनाकर हमें अपने पुरखों का सम्मान करना चाहिए और इसी से हमारा अस्तित्व बचा रह पाएगा।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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