भारत की आज़ादी के लिए हज़ारों लोगों ने सालों तक संघर्ष किया, और सैकड़ों महान वीरों के बलिदान के बाद ही हमें यह आज़ादी मिली है। भारत के अन्य क्षेत्रों और प्रान्तों की तरह छत्तीसगढ़ से भी अनेक स्वतंत्रता सेनानी आगे आए। उन्हीं में से एक हैं, छत्तीसगढ़ के बघवा (बाघ) कहे जाने वाले वीर सपूत श्री वीर नारायण सिंह जी, जो हमारे छत्तीसगढ़ से आज़ादी की लड़ाई में शहीद होने वाले सबसे पहले क्रांतिकारी थे।
वीर नारायण सिंह जी का जन्म वर्ष 1795 में हुआ था, उस समय छत्तीसगढ़ को सोनाखान राज्य के नाम से जाना जाता था। वहाँ के जमींदार श्री रामसाय बिंझवार जी के घर में ही उनका जन्म हुआ था। एक समय सोनाखान सघन वन क्षेत्र था और उस क्षेत्र में बहुत सारे जंगली जानवर भी रहते थे। एक बार एक हिंसक बाघ सोनाखान के क्षेत्र में लोगों को काफ़ी परेशान करता था, उस बाघ ने गाँव वालों के पशुओं के साथ-साथ कई गाँव वालों पर भी जानलेवा हमला किया था। युवक नारायण सिंह जी ने उस हिंसक बाघ को मारकर गाँव वालों की जान बचाई थी।इसी के बाद से उन्हें वीर नारायण सिंह कहकर बुलाया जाने लगा। 1856 में जब छत्तीसगढ़ में भीषण अकाल पड़ा था, तब यहाँ लोगों को खाने और पानी की दिक्कत होने लगी थी, उस समय वीर नारायण सिंह जी ने सभी व्यापारियों को बुलाकर खाने की व्यवस्था करने के लिए सहयोग करने की प्रार्थना की और उनके अनाज के जगह उन्हें आने वाले सालों में दुगुने अनाज देने की बात कही। कुछ छोटे व्यापारियों ने तो वीर नारायण सिंह का भरपूर सहयोग दिया लेकिन बड़े व्यापारियों ने मदद करने से साफ इनकार कर दिया जिस कारण से सोनाखान की अधिकतर लोगों में भूखमरी छाने लगी, इस भुखमरी को देखते हुए वीर नारायण सिंह जी ने माखन सिंह बनिया के गोदाम से अनाज लूटकर सभी पीड़ित परिवारों में बांट दिया। यह आदिवासी भाइयों के लिए वीर नारायण सिंह जी की पहली क्रांतिकारी पहल थी। इसकी भनक अंग्रेज़ों को पड़ी तो उन्होंने फ़िर वीर नारायण सिंह को जेल में डाल दिया। अंग्रेज़ों ने उन पर कई सारे झूठे इल्जाम बढ़ा चढ़ाकर लगाए जिसमें हत्या का भी झूठा आरोप लगाया गया था। 4 दिन रायपुर के जेल में बंद रहने के बाद 10 मई 1857 को वे अपने कुछ साथियों के साथ जेल से सुरंग बनाकर भागने में सफल हो गए।
इसके बाद से वीर नारायण सिंह जीने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आज़ादी की जंग शुरु कर दी, उनके साथ इस राज्य से 5000 आदिवासियों की एक सेना भी जुड़ गई जिन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ कई सारे विद्रोह यहाँ अंग्रेजों का रहना मुश्किल कर दिया था। लेकिन कुछ उन्हीं के साथियों को अंग्रेज़ों ने धन का लालच देखकर बहला फुसलाकर वीर नारायण सिंह जी को गिरफ्तार करवा लिया गया। फ़िर 10 दिसंबर 1857 को रायपुर के चौराहे पर उन्हें बांधकर फांसी दे दी गई, वर्तमान में यह स्थान जयस्तंभ चौक के नाम से जाना जाता है। फांसी देने के बाद अंग्रेज़ों ने उस महान सपूत की शरीर को तोप में बांधकर उड़ा दिया। उनके इस बलिदान के बाद छत्तीसगढ़ से अनेक क्रांतिकारियों ने इस मुहिम को चालू रखा और अपनी बलिदानी दी, जिसके बदौलत आज हम आज़ाद हुए हैं।
भारत सरकार द्वारा शहीद वीर नारायण सिंह जी की स्मृति में डाक टिकट भी जारी किया गया है जिसमें उनके शव को तोप से बाँधा हुआ दिखाया गया है। वीर नारायण जी के सम्मान में छत्तीसगढ़ प्रदेश शासन के द्वारा उनकी स्मृति में एक पुरस्कार की शुरुआत भी की गई है, जिसके तहत राज्य के अनुसूचित जनजाति में सामाजिक चेतना जागृत करने तथा उद्यान के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले व्यक्तियों या स्वैच्छिक संस्थाओं को दो लाख के नगद राशि एवं प्रशस्ति पत्र दिया जाता है। 2008 में छत्तीसगढ़ सरकार के रायपुर क्रिकेट संघ ने शहीद वीर नारायण सिंह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम की स्थापना भी की, जो भारत का दूसरा सबसे बड़ा क्रिकेट स्टेडियम है, अब यहाँ बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय मैच खेले जाते हैं।
आज़ादी के इतने बड़े हीरो की याद में 10 दिसंबर को सिर्फ़ आदिवासी समुदाय के द्वारा ही नहीं बल्कि अन्य समुदायों के द्वारा भी बहुत सारे कार्यक्रम किए जाते हैं। वीर नारायण सिंह जी के इस बलिदान के कारण हमें और भी बहुत सारे क्रांतिकारी देखने को मिले हैं जिन्होंने उनके आज़ादी के इस मुहिम को चलाए रखा। आज के युवा भी उनके जीवन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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