पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
बचपन में हम अनेक से खेल खेलते थे। और खेलते-खेलते खाना-पीना भूल जाते थे। खेल खेलने में ऐसे मग्न हो जाते थे, कि किसी अन्य चीज का ध्यान ही नहीं रहता था। खेल खेलना बच्चों के लिए आवश्यक है। क्योंकि इसी से इनकी मानसिक विकास शुरु होता है।
आप आदिवासी बच्चों को गाँवों में अनेक खेल खेलते देख पायेंगे। बचपन में हम कई खेलों को खेल चुके हैं, जिससे हमें आनन्द मिलता था। अब, जब हम बड़े हो गए हैं, हमें हमारा बचपन याद आता है। ऐसा लगता है, काश वह बचपन फिर आ जाये। हमारे जीवन का सबसे अनमोल और आनन्दमय समय हमारा बचपन होता है। जहाँ से हमारी ज्ञान प्राप्ति की शुरूआत होती है।
बचपन के अनेक खेलों में, "केचो, गिल्ली डण्डा, डण्डा-पंचरंगा, रेडी-रेडी, गोबर-डंडा" आदि शामिल हैं। इन्हीं में से एक खेल है, "अत्ती-पत्ती, कौन-सा-पत्ती?"। इस खेल को खेलने के लिए बच्चों के झुण्ड की आवश्यकता होती है। कम लोगों में यह खेल खेलने में मजा नहीं आता। जितने अधिक लोग होंगे, उतना ही खेलने में आनन्द आता है। इस खेल को बड़े लोग भी बच्चों के साथ खेल सकते हैं, लेकिन एक ही उम्र के लोग खेलें तो बेहतर रहता है। क्योंकि बच्चों के साथ इस खेल को बड़े खेलेंगे तो आसानी से बच्चों को हरा सकते हैं। यह खेल भाग-दौड़ का खेल है। और इसी वजह से हमारा शरीर फुर्तीला भी हो जाता है। इससे हमारे पूरे शरीर का व्यायाम भी हो जाता है। इस प्रकार यह हमारे लिए उपयोगी भी साबित होता है।
इस खेल को खेलने के लिए एक वृत्ताकार गोला बनाया जाता है। बच्चे डंडे की सहायता से एक गोला बनाते हैं, जिसमें किसी एक को छोड़कर सभी खेलने वाले बच्चे उस गोले के अन्दर आ जाते हैं। जब गोला बन जाता है, तब किसी माध्यम से उनमें से एक को दांव दिया जाता है। दाँव देने के लिए किसी एक के हाथ के नीचे सभी अपनी ऊँगली रखते हैं, और वह 1 से 3 तक गिनती लगाता है, फिर वह उँगलीयों को पकड़ता है। उसमें, जिसकी ऊँगली पकड़ा जाती है, उसको दाँव दिया जाता है। और जिसको, दाँव दिया जाता है, वह गोले के बाहर रहता है। बाकी सभी गोले के अन्दर रहते हैं।
तत्पश्चात गोले के बाहर का बच्चा बोलता है, "अत्ती-पत्ती" और गोले के अन्दर उपस्थित बच्चे प्रश्न के रूप में कहते हैं, "कौन-सा-पत्ती?" तब गोले के बाहर उपस्थित बच्चा उत्तर के रूप में किसी एक पत्ते का नाम बोलता है। फिर गोले के अन्दर उपस्थित बच्चे, बताए गए पत्ती को छूने के लिए गोले से बाहर निकलते हैं और उस पत्ती को छूने जाते हैं। तब गोले के बाहर उपस्थित बच्चा उनको छूने के लिए दौड़ाता है। चूंकि उसे अपना दांव बदलने के लिए गोले से बाहर निकले हुए बच्चों को पत्ती छूने से पहले छुना होता है। वह जिसको छूता है, दाँव उसके पास चली जाती है। और वह बाहर हो जाता है। और यह प्रक्रिया चलते रहती है, जब तक कि खेल समाप्त न किया जाए।
अब वर्तमान समय में, बहुत से खेल विलुप्त हो चुके हैं। जिन्हें, अब गाँव में भी बच्चे खेलते हुए दिखाई नहीं देते हैं। और वहीं बहुत से खेल ऐसे हैं, जो आज भी गाँव में बच्चे खेलते हुए दिखाई दे जाते हैं। हमारे बड़े-बुजुर्गों से जो खेल हमने सीखे हैं, उन खेलों को हमें भी बच्चों को सीखाना चाहिए। ताकि आदिवासीयों के प्राचीन खेल हमेशा के लिए बरकरार रहें।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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