लोहंडीगुड़ा गोलकांड: बस्तर के इतिहास का एक काला अध्याय
- Prashant Kumar Kashyap
- 5 days ago
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31 मार्च, 1961 को बस्तर के लोहंडीगुड़ा गाँव में एक ऐसी घटना घटी, जिसने इतिहास के पन्नों में "लोहंडीगुड़ा गोलकांड" के नाम से अपनी जगह बनाई। यह वह काला दिन था जब अपने प्रिय महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के समर्थन में और सरकार की नीतियों के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों पर पुलिस ने गोलियाँ बरसाईं। आधिकारिक तौर पर 12 लोगों की मृत्यु की बात कही गई, लेकिन स्थानीय दावों के मुताबिक यह संख्या कहीं अधिक थी। यह सिर्फ गोलीबारी नहीं थी—इसने आदिवासियों के मन में सरकार के प्रति गहरा अविश्वास पैदा किया, नक्सलवाद के बीज बोए, और बस्तर के संघर्षमय इतिहास में एक अंधेरा अध्याय जोड़ दिया। आज भी यह त्रासदी न्याय और समानता की माँग को गूंजती है।

क्रूरता का गवाह - 31 मार्च, 1961
लोहंडीगुड़ा, बस्तर का एक शांत गाँव, जहाँ आदिवासियों का जीवन सदियों से अपनी लय में बहता था। उस समय उनके प्रिय महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को नरसिंहपुर जेल में कैद कर दिया गया था, जबकि विजय चंद्र भंजदेव को सरकार ने सत्ता की बागडोर सौंपी थी। 31 मार्च, 2025 को मुरिया समाज के अध्यक्ष जगदीश जी ने एक साक्षात्कार में खुलासा किया:
“आज से ठीक 64 साल पहले, 31 मार्च, 1961 को जो गोलकांड हुआ, उसके पीछे की वजह क्या थी? प्रवीर चंद्र भंजदेव को जेल में डाल दिया गया था। दूसरी ओर, विजय चंद्र भंजदेव को शाही सभा के जरिए सरपंच या पटेल बनाया जा रहा था। परंपरा के अनुसार, सबसे बड़े पुत्र को पटेल और फिर राजा की उपाधि मिलती थी। लेकिन विजय चंद्र ने लालच में आकर ब्रिटिश या अन्य ताकतों के साथ मिलकर प्रवीर चंद्र को सत्ता से दूर करने की साजिश रची।”
इस सत्ता के खेल ने लोहंडीगुड़ा में उस प्रदर्शन की नींव रखी, जो बाद में खूनी त्रासदी में बदल गया।
खून से सनी सभा
घोषणा हुई कि लोहंडीगुड़ा में विजय चंद्र भंजदेव के खिलाफ प्रदर्शन होगा। जगदीश जी बताते हैं, “जब यह खबर फैली, तो लोग उत्साह से भर उठे। सभी आदिवासी अपने पारंपरिक हथियार—धनुष, तीर, भाले—लेकर वहाँ जुटे। लेकिन जैसे ही सभा शुरू हुई, अराजकता फैल गई और पुलिस ने गोलियाँ चला दीं। अनगिनत निर्दोष लोग मारे गए। कितनों को दफनाया गया? कितनों को नदी में बहा दिया गया? उस समय एक वकील, जो बस्तर रियासत में नायब तहसीलदार थे, ने बताया कि इतनी बड़ी संख्या में लोग मारे गए कि गिनती असंभव थी।
आधिकारिक आँकड़े 12 मृतकों की बात करते हैं, लेकिन स्थानीय लोग इसे सैकड़ों में बताते हैं। इस खूनी मंजर ने बस्तर में नक्सलवाद की जड़ें मजबूत कीं, जो दशकों तक इस क्षेत्र को आग में झोंकता रहा।
नन्हे हथियार, बड़ा साहस
यह घटना इस बात का ज्वलंत सबूत है कि उस दौर में बस्तर के आदिवासी अपनी लड़ाई के लिए जान की बाजी लगा देते थे। उनके पास न आधुनिक हथियार थे, न सुविधाएँ, फिर भी वे अपने जल, जंगल, और जमीन की रक्षा के लिए डटकर लड़े। जगदीश जी कहते हैं, “उस समय लोग अपने सिंहासन और संस्कृति के लिए शहीद हुए। आज हम शिक्षित हैं, हमारे पास घर, सड़कें, वाहन हैं, लेकिन तब कुछ भी नहीं था। फिर भी, लोग इतने जागरूक थे कि अपनी रक्षा के लिए तैयार रहते थे।
यह तुलना हमें सोचने पर मजबूर करती है, हम पहले क्या थे और अब क्या होते जा रहे हैं ?

न्याय की गुहार
लोहंडीगुड़ा गोलकांड सिर्फ एक घटना नहीं, बल्कि आदिवासी अधिकारों और सरकारी जवाबदेही पर एक जलता सवाल है। जगदीश जी कहते हैं, “हम उन वीर शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं जिन्होंने अपने प्राण दिए। मैं सभी से अनुरोध करता हूँ—जो उस समय जागरूक थे और आज आगे आ सकते हैं—अपने क्षेत्रों में जाएँ और इस गोलीबारी की सच्चाई को लोगों तक पहुँचाएँ।”
उस दिन एक पूरी पलटन—यानी सैनिकों का समूह—पारापुर से आया था और अपनी जान गँवा बैठा। पास के गाँव के गंगाराम ने धनुष-तीर से ऐसी ताकत दिखाई कि पूरे गाँव को एकजुट कर लिया। हमें भी वही शक्ति और साहस चाहिए।
लोहंडीगुड़ा गोलीकांड बस्तर के आदिवासी समुदाय के संघर्ष और प्रतिरोध की एक शक्तिशाली गाथा है। यह हमें याद दिलाता है कि न्याय और समानता की लड़ाई कभी खत्म नहीं होती। यह एक ऐसी विरासत है जो हमें अपने अधिकारों के लिए लड़ने और बेहतर भविष्य के लिए प्रेरित करती है।
आज, हम उन सभी शहीदों को नमन करते हैं और यह जिम्मेदारी लेते हैं कि इस इतिहास को जीवंत रखें, अपनी संस्कृति की रक्षा करें, और अपने अधिकारों के लिए जागरूक बनें।
लेखक परिचय :- प्रशांत कुमार बस्तर के एक स्वतंत्र खोजी पत्रकार हैं, जो आदिवासी मामलों, सामाजिक मुद्दों और दूरदराज़ के इलाकों से ग्राउंड रिपोर्टिंग करते हैं।
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