महिलाओं को सुबह रोटी बनाने से लेकर रात में खाना बनाने के बाद बर्तन धोने तक मेहनत करनी पड़ती है। वे ये सभी कार्य पुरुषों के कार्य में हाथ बांटने के साथ-साथ करती हैं। एक ग्रामीण महिलाओं द्वारा किए जाने वाले कार्य - पुरुषों के साथ दिनभर खेत में काम करना, पीने का पानी भरना, जानवरों के लिए घास काटना, जलावन के लिए लकड़ी लाना, घर का सारा काम करने के साथ ही खाना बनाना, बच्चों को पालना, जानवरों का गोबर हटाना, एवं घर के सफ़ाई इनके प्रमुख कार्य हैं। फ़िर भी महिलाओं को आज तक पितृसत्ता के वजह से महत्व नहीं मिलती है। परंतु बहुत सी आदिवासी महिलाओं ने पितृसत्तात्मक ढांचे से बाहर निकलने के लिए संघर्ष शुरू कर दिए हैं, उनमें से कुछ महिलाओं से मिलने का अवसर मुझे मिला जो बहुत ही उल्लेखनीय कार्य कर रही हैं।
मीरा हेम्ब्रम
मीरा जी से मैं 2019 को टाटा स्टील द्वारा संचालित 'संवाद' कार्यक्रम में मिला था। मीरा जी गधरा, परसुडीह (पूर्वी सिंहभूम) की रहने वाली हैं। उनकी पढ़ाई दसवीं तक ही है परंतु उनके सपने बहुत बड़े-बड़े रहे हैं। परंतु पारिवारिक पाबंदीयों के वजह से सपनों में रुकावट थी। मीरा जी अपने स्कूल में होने वाले कराटे और बास्केटबॉल जैसे खेलों में भाग लेना चाहती थी, परंतु उनके घरवाले लड़िकयों को एक्स्ट्रा एक्टिविटी नहीं करने देते थे। उनका कहना था कि अगर लड़की यह सब करेगी तो घर का काम कौन करेगा? उन्हें घर वालों से अक्सर बेवजह डाँट पड़ते रहता था।
मीरा जी की शादी के बाद ससुराल में भी वही स्थिती थी। सास-ससुर भी उन्हें डांटते और मारते थे। उनके सास ससुर ने उन्हें घर से अलग भी कर दिया था। अलग रहकर मीरा जी आंगनबाड़ी में साहिया के रूप में काम कर रही थी, इसी दौरान गाँव वालों से उनकी जान-पहचान बढ़ने लगी। मीरा जी ने महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में कार्य शुरू कर दी थीं। मीरा का सेवा भाव और व्यवहार देखकर आस-पास के गाँव वाले भी उन्हें जानने लगे थे। अपनी बढ़ती लोकप्रियता को देखकर 2015 के पंचायत चुनाव में वे मुखिया पद के लिए खड़ी हो गई। उन्हें लोगों का प्यार और सहारा मिला और वह पंचायत चुनाव जीत कर अपने नॉर्थ ईस्ट गधरा पंचायत की मुखिया बन गईं।
सफलता मिलने के बाद और अपने पैरों पर खड़े हो जाने के बाउजूद उनके मन में अपने ससुराल वालों के प्रति कोई द्वेष का भाव नहीं था। वे उन्हें माफ कर अपने सास-ससुर को साथ रखना चाहती थीं, शुरुआत में उनके पति नहीं माने परंतु मीरा जी के प्यार से समझाने पर वे मान गए, और अब मीरा जी अपने अपने बच्चों और सास-ससुर के साथ खुशी से रहती हैं। मीरा जी आदिवासी समाज मे मौजूद महिलाओं के प्रति संकीर्ण मानसिकता से लड़कर अब समाजहित के कार्यों में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रही है। वे बड़े जोर-शोर से अपने पंचायत में महिला सशक्तिकरण पर कार्य कर रही हैं।
अकली टुडु
अकली जी से मैं महाराष्ट्र के पंचगनी में टाटा स्टील के ट्राइबल युथ लीडरशिप 2.0 कार्यक्रम में मिला था। वे पूर्वी सिंहभूम के गुड़ाबाँदा ब्लॉक की रहने वाली हैं। अकली टुडु आज महिलाओं के लिए एक उदाहरण है। उनकी ज़िन्दगी भी बचपन से ही बहुत कठिन थी। उन्हें घर के काम के अलावा कोई और काम नहीं करने दिया जाता था। यहाँ तक कि उन्हें बाहर किसी को दोस्त बनाने तक नहीं दिया जाता था। बड़े होने के बाद भी उन्हें किसी दूसरों से बात तक नहीं करने दिया जाता था, अगर किसी के साथ बात कर भी लें तो गलत अफवाह फैला दी जाती थी। अकली जी इस संकीर्ण मानसिकता से बचपन से ही लड़ना चाहती थीं। जब वह बड़ी हो गईं तो धीरे-धीरे कर अपने साथ महिलाओं को इकट्ठा करना शुरू कर दी थीं। एक तरह से बोलें तो यह एक नई क्रांति थी। अकली जी सभी महिलाओं को कृषि से ही जोड़ कर रखी हुईं थीं। उन्होंने एक ट्रस्ट भी बना लिया जिसका नाम था “जुमिद तिरला गांवता”। इस ट्रस्ट में अभी वे सचिव के पद पर हैं। इसी ट्रस्ट के माध्यम से वे महिलाओं को उन्नत कृषि के लिए जगह-जगह ट्रेनिंग दिलाने ले जाती हैं। इस संस्था को टाटा ट्रस्ट भी फंडिंग कर रही है। इसके अलावा अकली जी का एक कंपनी भी है। इस कंपनी को सरकार के तरफ से सहायता भी मिलती है। इस कंपनी का नाम है “ घरोंज लाहन्ती महिला उत्पादक पोरदुसार लिमिटेड”। अकली जी इस कंपनी में चेयरमैन के पद पर हैं। इस कंपनी में अब तक 27,000 परिवार की महिलाएं जुड़ चुकी हैं। महिलाएं इस कंपनी में अपना सेवा देकर अपने घर को भी चला रही हैं।
अकली जी अपने आसपास के सभी महिलाओं के लिए एक वरदान साबित हो रही हैं। वे महिलाओं को जागरूक करने के साथ-साथ आर्थिक रूप से भी मज़बूत कर रही हैं। कोई भी महिला अकली जी के यहाँ से खाली हाथ नहीं लौटती है। अकली जी के ट्रस्ट और कंपनी में स्टाफ के रूप में पुरुष जरूर हैं लेकिन पदाधिकारी सिर्फ महिलाएं हैं।
मीरा और अकली जी जैसी महिलाओं की ज़रूरत आज प्रत्येक आदिवासी गाँव में है। कहने को तो यह कहा जाता है कि आदिवासियों में महिलाओं के प्रति सम्मान अन्य वर्गों की तुलना में अधिक है, लेकिन इन आदिवासियों समुदायों में भी महिलाओं के अधिकारों की अनदेखी होती है और उनमें भी महिलाओं के प्रति संकीर्ण मानसिकता है, जिसे दूर करने की ज़रूरत है। यह पुरूष नहीं महिला ही कर सकती हैं, हम पुरुषों को वह माहौल देना होगा जिससे महिलाएं आगे आ सकें।
महिलाएं जब अपना कदम आगे बढ़ाती है, तब परिवार के साथ-साथ गाँव समाज भी आगे बढ़ता है। महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सबसे पहले समाज में उनके अधिकारों और मूल्यों को मारने वाले उन सभी हैवानी/राक्षसी सोच को मारना ज़रूरी है। जैसे दहेज प्रथा, अशिक्षा, यौन हिंसा, असमानता, भ्रूण हत्या, महिलाओं के प्रति घरेलु हिंसा, बलात्कार, वैश्यावृति, मानव तस्करी इत्यादि। लैंगिक भेदभाव समाज में संस्कृतिक, सामाजिक आर्थिक और शैक्षिक अंतर ले आती है जो समाज को पीछे ढकेलती है। ये ज़रुरी है कि महिलाएँ शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रुप से मज़बूत हों।
लेखक परिचय:- चक्रधरपुर, झारखंड के रहने वाले, रविन्द्र गिलुआ इस वक़्त अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर कर रहे हैं, भारत स्काउट्स एवं गाइड्स में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हैं। लिखने तथा फोटोग्राफी-वीडियोग्राफी करने के शौकीन रविन्द्र जी समाजसेवा के लिए भी हमेशा आगे रहते हैं। वे 'Donate Blood' वेबसाइट के प्रधान समन्वयक भी हैं।
महिलाएं मोहताज नहीं किसी गुलाब की, वे खुद बागबान है इस कायनात की..... स्त्री का विकास ही समाज का विकास है।