बरसात आते ही गाँव तथा जंगलों में प्राकृतिक रूप से अनेकों प्रकार के मशरूम (कुकरमुत्ता) उग आते हैं, इनमें से कुछ खाने योग्य होते हैं और कुछ जहरीले। आदिवासी समाज में मशरुम बरसात के दिनों का मुख्य आहार होता है, प्रत्येक घरों में हर दूसरे दिन मशरूम ज़रूर बनता है।
50 वर्षीय करन बाई बताती हैं कि, "बचपन से ही हम मशरुम उठाने जंगलों में चले जाते थे, कौन सा मशरूम खाने योग्य है और कौन सा जहरीला यह हमें अपने पूर्वजों से पता चल गया था"
जंगलों में अनेक प्रकार के रंग बिरंगे मशरूम उगते हैं, एक तो वे देखने मे भी काफ़ी सुंदर होते हैं और खाने में भी अच्छे। कुछ लोग सिर्फ़ खाने के लिए मुशरूमों को लाते हैं, और कुछ लोग जंगल से मशरुम तोड़कर हाट-बाज़ार में बेचकर कुछ पैसे भी कमा लेते हैं।
जंगलों तथा खेतों में उगने वाले मशरुम के अलावा आदिवासी समुदाय के लोग अपने घरों में भी मशरूम का उत्पादन प्राचीन समय से करते आएं हैं।
ज़्यादातर आदिवासी किसान हैं और खेती किसानी करते हैं, कृषि में भी छत्तीसगढ़ के आदिवासी प्रायः अपने खेतों में धान की कृषि करते आये हैं। धान की फसल तैयार हो जाने के बाद उसे काटकर खलिहान में लाकर रखा जाता है, और धान को अलग कर के उसमें से निकले पुआल/पराली को खलिहान या घरों के आँगन में ही रखा जाता है। यह पुआल/पराली घरों में पलने वाले गाय तथा बैल के लिए मुख्य भोजन होते हैं। बरसात के दिनों में बाहर रखे गए यह पुआल भींग जाते हैं और इनका ऊपरी हिस्सा सड़ने लगते है, इन्हीं सड़ रहे पुआल में से धीरे धीरे करके मशरुम उगने लगते हैं।
पुआल से निकला यह मशरुम खाने योग्य होता है तथा बहुत ही स्वादिष्ट होता है। वैसे तो गाँवों में सड़े गले घांस-फूंस, गोबर और लकड़ी आदि से बहुत प्रकार के मशरूम निकलते हैं, परंतु सभी खाने योग्य नहीं होते, गाँव में बच्चा हो या बूढ़ा सभी को इन मशरूमों के बारे में जानकारी जरूर होती है।
छत्तीसगढ़ में जहरीले मशरुम को मतौना पुटू कहा जाता है, यदि कोई व्यक्ति गलती से किसी जहरीले मशरूम को खा ले तो उसकी तबियत बिगड़ने के पूरी संभावना रहती है, लेकिन इन्हीं जहरीले मशरूमों का औषिधि भी बनाई जाती हैं। इनको सुखाकर इनसे बने चूर्ण को घाव में लगाने से घाव जल्दी सुख जाते हैं। आदिवासी घरों में मशरूम से बनी यह औषिधि ज़रूर होती है।
कई क्षेत्रों में गाँव की महिलाएं समूह बनाकर भारी मात्रा में इन मुशरूमों का उत्पादन कर बड़े रेस्टोरेंट तथा मंडी में ले जाकर बेचती हैं, इनसे गाँव की महिलाओं को अच्छी खासी आमदनी हो जाती है। कई महिलाएं मशरूम उत्पादन का कुटीर उद्योग भी खोल लिए हैं।
पराली पर होने वाले ये मशरूम सिर्फ़ बरसात के मौसम में ही उगते हैं। परंतु कई लोग मशरूम की खेती भी करते हैं, इसके लिए एक गर्म बंद स्थान की आवश्यकता होती है। पराली को छोटे-छोटे काटकर प्लास्टिक में बंद कर प्लास्टिक में छेद कर दिया जाता है, और एक कमरे में रखकर उनपर प्रतिदिन गर्म पानी डाला जाता है, कुछ दिनों बाद उनमें से मशरूम उगने लगते हैं। आजकल मशरूम उत्पादन का पाउडर भी बाज़ार में उपलब्ध हो गया है।
पराली में प्राकृतिक रूप से उगने वाली इन पौष्टिक मुशरूमों की वजह से आदिवासी घरों में बरसात के दिनों में सब्जियों की समस्या नहीं होती। यदि थोड़ी और मेहनत करके तथा व्यवस्थित रूप से मुशरूमों का उत्पादन किया जाए तो गाँवों में कमाई का यह बहुत ही आसान जरिया हो सकता है।
यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog samaj sevi sanstha और Misereor का सहयोग है l
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