top of page
Writer's pictureRabindra Gilua

इस पृथ्वी दिवस पर जानिए कैसे आदिवासीयों की वजह से हमारी पृथ्वी बची हुई है?

Updated: Feb 23, 2023

निरंतर बढ़ते वैश्विक तापमान, ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ के पिघलने, सुनामियों, बाढ़ों और सूखे के बढ़ते हुए खतरों आदि से पृथ्वी को बचाना तत्कालीन अनिवार्यता है। गलत मानवीय गतिविधियों ने बहुत से पर्यावरणीय मुद्दों: को जन्म दिया है। पृथ्वी सभी मनुष्यों की ज़रुरत पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन प्रदान करती है, लेकिन लालच पूरा करने के लिए नहीं।


आदिवासी समुदाय के लोग इस चीज़ को क़रीबी से जानते हैं, इसीलिए हमेशा से ही जल-जंगल-ज़मीन को बचा कर रखते आए हैं। दुनिया के कई तथाकथित विकसित देशों ने जो काम कुछ सालों पहले करना शुरु किया है, वह काम हमारे आदिवासी हज़ारों साल से कर रहे हैं। 22 अप्रैल 1970 से दुनियाभर में पृथ्वी दिवस मनाया जा रहा है। जबकि पृथ्वी को पूजकर पृथ्वी दिवस मनाने की परंपरा भारतीय आदिवासी संस्कृति में हज़ारों सालों से चली आ रही हैं। छत्तीसगढ़ की आदिवासी संस्कृति में पृथ्वी दिवस के रुप में बस्तर का 'माटी तिहार', कोल्हान और संताल परगना में ‘बाहा परब' राँची और खूँटी में ‘सरहुल त्योहार’ मनाया जाता है, जिसमें धार्मिक अनुष्ठान करके पृथ्वी की आराधना होती है। आदिवासी पृथ्वी को ही अपना भगवान मानते आए हैं। हर कार्य से पहले धरती माता का आशीर्वाद लेते हैं। आदिवासियों का कहना है कि हर जीव पृथ्वी पर जीवनयापन कर रहा है, तो यह पृथ्वी के आशीर्वाद से ही संभव है। धरती माता अन्न, जल, फल-फूल, पेड़-पौधे, पहाड़, नदियां, झरने का सुख देती है। धरती माता की कृपा से ही जीव-जंतुओं समेत इंसानों का जीवन चलता है। यही वजह है कि आदिवासी समुदाय सालों से धरती माता को आराध्य मानकर पूजा करते आए हैं। हर इलाके में रहने वाले आदिवासी धरती माता अपने तरीके से पूजा करते हैं।

आदिवासी जिस जंगल पहाड़ से अपनी ज़रूरतों की पूर्ति करते हैं। उन्हीं पहाड़ों में उनके देवी देवताओं का वास होता है। अच्छी फसल या अच्छी बारिश के लिए आदिवासी लोग हर साल पहाड़ी देवताओं की पूजा अर्चना करते हैं। जिस जगह देवताओं का वास होता है उसको पाउड़ी स्थल कहा जाता है। अभी भी हर पाउड़ी स्थल में मुख्य पुजारी आदिवासी ही होता है। राजा महाराजाओं के काल में ये देवी-देवता उन्हें सपनों दर्शन दिया करते थे। इसीलिए इधर के राज-राजवाड़े अपने हर शुभ कार्य से पहले आदिवासियों के द्वारा पूजा अर्चना करवाते थे।


अभी भी आदिवासियों के वजह से ही पहाड़ बचे हुए हैं नहीं तो अब तक विकास के नाम पर इनकी भी बली चढ़ चुकी होती। ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड के लोग अपने पहाड़ों को बचाने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं। आज हमारी पृथ्वी अगर रहने के काबिल है तो इसे संरक्षित रखने में आदिवासियों का योगदान सर्वोपरि है, जिन्होंने इसके रखवाले बनकर अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिए हैं।


प्रकृति को माता मानने वाले व जल, जंगल और ज़मीन को भगवान का दर्जा देने वाले आदिवासियों ने सदियों से बिना किसी स्वार्थ के इनकी रक्षा की है। आदिवासियों के जीवन में जल, जंगल और ज़मीन का विशेष महत्व रहा है। आदिवासी आदिकाल से जंगलों में समुदाय बनाकर रहते हैं। वन संरक्षण की प्रबल प्रवृति के कारण ये वन व वन्य जीवों से उतना ही लेते हैं जितने की ज़रूरत हो, जिससे उनका जीवन सुलभता से चल सके व आगामी पीढ़ियों को भी वन-स्थल धरोहर के रूप में दिए जा सके।


आदिवासी द्वारा शादी से लेकर प्रत्येक त्यौहार में पेड़ों को साक्षी माना जाता है, आदिवासियों के वैवाहिक समारोह में सेमल, साल, आम, जामुन, महुआ आदि के पत्तों विशेष महत्व है। आदिवासी जंगलों से जड़ी - बूटी, फल - फूल, सब्जियां, लकड़ी आदि इक्कट्ठा करते है, उन्हें शहरों में बेचकर अपनी जीविकायापन करते हैं और बदले में वे भरपूर वृक्षारोपण करते है खासकर बारिश के तुरंत बाद वे बड़े स्तर पर तरह-तरह के पेड़ उगाते हैं, और बड़े होने तक उन पौधों की देखभाल भी करते हैं।

प्रकृति के सम्मान में पारम्परिक नृत्य करते आदिवासी

आदिवासी ही इस बात को समझते हैं कि प्राकृतिक जंगल उगाये नहीं जा सकते, खुद बनते हैं। आदिवासियों ने अपनी सामाजिक व्यवस्था के तहत कुछ बंदिशें स्वयं पर लगा रखी हैं, इन बंदिशों के तहत महुआ, आम, करंज, जामुन आदि के वृक्ष वे नहीं काटते, सखुआ के पेड़ की बंदिश यह है कि तीन फुट छोड़ कर ही उसे काटना है। वे जलावन के लिए हमेशा सूखे पेड़ ही काटते हैं इसलिए तो जहाँ आदिवासी हैं, वहाँ जंगल भी बचे हुए हैं। जहाँ वे नहीं हैं, वहाँ जंगल का नामो-निशान मिट चुका है।


आदिवासी लोग संरक्षण प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं क्योंकि वे प्रकृति से अधिक एकीकृत और आध्यात्मिक तरीके से जुड़ पाते हैं, आदिवासी लोगों के लिये सम्मान की भावना विकसित करने की आवश्यकता है क्योंकि वन्य क्षेत्रों में आदिवासियों की उपस्थिति जैव विविधता के संरक्षण में सहायक होती है।


लेखक परिचय:- चक्रधरपुर, झारखंड के रहने वाले, रविन्द्र गिलुआ इस वक़्त अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर कर रहे हैं, भारत स्काउट्स एवं गाइड्स में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हैं। लिखने तथा फोटोग्राफी-वीडियोग्राफी करने के शौकीन रविन्द्र जी समाजसेवा के लिए भी हमेशा आगे रहते हैं। वे 'Donate Blood' वेबसाइट के प्रधान समन्वयक भी हैं।


Comments


bottom of page