आज के जमाने में यदि घर बनाते हैं, तो उसी घर में रहने के लिए गर्मियों में पंखे और सर्दियों में हीटर की आवश्यकता महसूस होने लगती है। आदिवासी समुदाय परम्परागत रूप से ऐसे घर बनाते आये हैं, जो प्रत्येक मौसम के अनुकूल होता है।
छत्तीसगढ़ में कई प्रांतों के आदिवासी पटाव घर का इस्तेमाल करते हैं। इस प्रकार के घरों में छत के नीचे लकड़ी और मिट्टी से बना एक प्रकार का फॉल्स सीलिंग होता है। इसी की वजह से घर अपने आप मौसम के अनुकूल बन जाते हैं, गर्मियों में ठंडक महसूस होता है और ठंड में गर्मी का एहसास होता है।
इस तरह के ज्यादातर घर मिट्टी के ही बने होते हैं। इनकी ऊँचाई लगभग 15 फिट की होती है, 10 फिट की ऊंचाई के आसपास यह पटाव डाले जाते हैं। पटाव डालने के लिए, दीवार पर समान दूरी पर छेद किये जाते हैं, उन छेदों पर मोटी-मोटी लकड़ियाँ डाली जाती हैं, फिर उनके ऊपर छोटी-छोटी झाड़ियाँ या फ़िर बाँस बिछाया जाता है, उसके ऊपर और नीचे गीली मिट्टी से पलस्तर जैसा कर दिया जाता है। पक्के घरों में पंखे, ए सी, कूलर, हीटर आदि की आवश्यकता होती है, परंतु सदियों से पटाव घर आदिवासियों का जीवन सुलभ करते आये हैं।
गर्मियों में गर्म हवाएं छप्पर के अंदर तो घुसती हैं, परंतु पटाव के होने के कारण कमरे में घुस नहीं पातीं अतः घर ठंडा रहता है, ठंडी में गर्म हवाएं पटाव के कारण बाहर नहीं जाती इसीलिये घर भी गर्म रहता है।
कोरबा जिले के, ग्राम कोड़गार निवासी श्री विजेंद्र सिंह वाकरे ने बताया कि उनका घर भी पटाव वाला है और यह घर लगभग 25-26 साल पुराना है। घर की छत को सिर्फ़ साल में एक बार बरसात से पहले मरम्मत की जाती है, ताक़ि पानी पटाव पर न पड़े। वे कहते हैं "अगर मैं पक्का घर बनाऊँगा तब भी इस पटाव वाले घर को नहीं तोडूंगा। मुझे इसमें ज्यादा सुकून मिलता है।"
वहीं ग्राम बिंझरा की श्रीमती जानकी जी कहती हैं कि, " मेरे घर के सभी कमरे पटाव वाले हैं, इन्हें मैं स्वयं बनाई हूँ। जो आराम पटाव वाले कमरों में है, वो आराम पक्के घरों के कमरों में नहीं है। यह घर मुझे आँधी-तूफान, सर्दी-गर्मी आदि सबसे बचाता है। इस प्रकार के घरों को बनाने में बहुत कम खर्च लगता है।"
आदिवासियों को प्रकृति के साथ मिलकर रहना बहुत अच्छे से आता है, पटाव घर इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। आधुनिक तरीके से बने घरों में जिन संसाधनो का इस्तेमाल किया जाता है, उन्हें प्रकृति का दोहन करके ही लाया जाता है, जैसे कि, सीमेन्ट, बालु, लोहा इत्यादि। अतः जितना ज्यादा पक्के घर बनेंगे, उतना ही ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान भी होगा।
केंद्र सरकार लोगों को घर बनाने का पैसा तो दे रही है, लेकिन पटाव घर जैसा प्राकृतिक एवं कम संसाधनों वाले घर बनाने पर जोर देना चाहिए। इससे प्रकृति को भी बचाया जा सकता है और आदिवासियों के अद्भुत ज्ञान को भी।
यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog samaj sevi sanstha और Misereor का सहयोग है l
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