हमारे छत्तीसगढ़ में गौ पालन को अत्यधिक प्रोत्साहित किया जा रहा है I गाय से प्राप्त गोबर तथा गौमूत्र का उपयोग करके जैविक खाद तथा कीटनाशक बनाये जा रहे हैं, इससे छत्तीसगढ़ में धान के फसल का उत्पादन क्षमता बढ़ रहा है। लेकिन एक तरफ जहां गाय और बैल कृषि को बेहतर बनाने में मदद कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ चारागाहों की कमी बहुत सारी समस्याएं पैदा कर रही है।
यदि आप कभी छत्तीसगढ़ आते हैं तो आपको तुरंत सड़कों पर कई गाय और बैल घूमते हुए दिखाई देंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके लिए पर्याप्त चारागाह नहीं है। तेज़ी से बढ़ती शहरीकरण की वजह से अब खेती योग्य ज़मीन कम होने लगी है, बढ़ती आबादी के कारण अब लोगों को रहने के लिए भी जगह कम पड़ने लगा है। इस कारण लोग तेज़ी से अपने ज़मीनों पर घर बनाने लगे हैं। शहरों के साथ अब गाँव भी फैलने लगे हैं। खदानों के कारण अब जंगल भी कम होने लगे हैं।
उपरोक्त स्थितियों के कारण पशुओं को चराने की जगह कम होने लगी है। चारागाह की कमी के कारण पशुओं को चराने एवं उनके रखरखाव की भारी समस्या खड़ी हो गयी है। स्थिति यह है कि यदि आप छतीसगढ़ के किसी भी रास्ते में निकल जाएंगे तो सड़क पर आपको गाय बैल बैठे हुए मिलेंगे। इस तरह जानवरों का सड़क पर रहना एक तरह से दुर्घटना का आमंत्रण है, इससे जानवर तथा मनुष्य दोनों को खतरा है।
गौ सेवा हेतु बनाए गए कई जगहों पर गौठान।
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा राज्यभर में गौठान बनाये गए हैं। हमारे कोरबा जिले में ही लगभग 88 गौठान बनाए जा चुके हैं, इन गौठनों मे गौपालन, खाद बनाने का काम, और जैविक कीटनाशक दवाई बनाने का काम होता है। गाँवों में समितियां बनाकर इन गौठनों का संचालन किया जाता है, यदि कोई समस्या हो तो इन्हीं समितियों के सदस्यों द्वारा मिलकर समाधान भी किया जाता है।
कुछ समय पहले सरकार द्वारा गाँवों में वन अधिकार के तहत सरकारी ज़मीन के पट्टे का वितरण किया गया, जिसके कारण लोग अब उन ज़मीनों पर मौजूद वनों को उजाड़कर या तो मकान बना रहे हैं या फिर खेती कर रहे हैं।
पहले जहाँ लोग अपने पशुओं को चराने ले जाते थे उन जगहों पर अब खेत या मकान बन चुके हैं। गाँवों तथा जंगलों में चारागाहों की कमी के कारण, दूर-दूर से लोग गाड़ी मोटर में गाय बैलों को भर-भर कर गौठान के आसपास या जिस गाँव में गौठान है, उस गाँव में लाकर छोड़ रहे हैं। धीरे-धीरे अब सभी गांवों में यह हाल हो गया है, लोग अब पशुपालन नहीं करना चाहते हैं। जो खाद उन्हें पशुओं के रखने से प्राप्त होता था, अब वे उन्हें गौठनों से खरीदने लगे हैं।
पशुपालन का इस तरह छोड़ना पूरी संस्कृति से दूर होना है। सदियों से आदिवासी समुदाय के लोग प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर अपना जीवनयापन करते आ रहे हैं, परंतु मनुष्यों में बढ़ती लालच के कारण प्रकृति का अनावश्यक दोहन होने लगा है और परिणामस्वरूप हमें जीवन जीने के कृत्रिम उपायों का तलाश करना पड़ रहा है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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