कोविड-19 लॉकडाउन की वजह से हमारे भारत देश के अधिकांश लोगों को किसी ना किसी प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। देश में लॉकडाउन के कारण आर्थिक गतिविधियों पर विराम लगा हुआ है। मजदूरों और गरीब वर्ग के लोगों पर इस तालाबंदी का सबसे ज्यादा असर देखने को मिल रहा है। लॉकडाउन के कारण लोगों के सामने आर्थिक परेशानी खड़ी हो गई है, लोगों को राशन भी नसीब नहीं हो पा रही है।
इसके कई कारण हैं — पहला कि लोगों को काम नहीं मिल पा रहा है और दूसरा कि रोजमर्रा की वस्तुओं की कीमतें बढ़ गई हैं। खाद्य और घरेलू वस्तुओं की आपूर्ति श्रृंखला लॉकडाउन से बुरी तरह प्रभावित हुई है। छत्तीसगढ़ के कई गाँव राज्य की राजधानी रायपुर से खाद्य पदार्थों की खरीद करते हैं लेकिन अब यह व्यवस्था धीमी हो गई है। परिणामस्वरूप, खाद्य-तेल की कीमतें बढ़ गई हैं। बड़ी कीमत और रोजगार संकट के बीच ग्राहकों के लिए आवश्यक सामग्री खरीदना भी मुश्किल हो गया है।
गरियाबंद जिले के छुरा ब्लॉक में कई आदिवासी गाँव हैं जहाँ लोगों को न तो रोज़गार मिल पा रहा है और न ही उचित कीमतों पर सामान मिल पा रहा है। सप्लाई चेन में आये बाधाओं से आवश्यक वस्तुओं, जैसे दाल, आटा, तेल, चीनी इत्यादि के दाम बढ़ गए हैं। आलू की कीमत 13 रुपये से बढ़कर 30 रुपये हो गया है। खाद्य-तेल की कीमत 130 रुपये थी, लेकिन अब इसे 160 रुपये में बेचा जा रहा है। प्याज 20 रुपये से बढ़कर 40 रुपये और दाल की कीमत 100 रुपये से बढ़कर 130 रुपये हो गई हैं।
श्री हुमन लाल सोरी लादाबाहरा गाँव में किराने की दुकान चलाते हैं। उनका कहना है कि वे अपने ही गांव के ग्राहकों के लिए आवश्यक राशन की पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि दुकान में पर्याप्त सप्लाई नहीं हो पा रहा है और महंगाई बढ़ गई है। कोविड -19 के लॉकडाउन के कारण सबसे ज्यादा परेशानी सामान लाने में हो रही है। उनका कहना है कि सामान की महंगाई के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में आवश्यकता राशन और अन्य सामानों की पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं। "अमीर लोग तो अपना परिवार चला रहे हैं लेकिन आम लोगों को आवश्यक राशन लेते समय दो गुना पैसा देना पढ़ रहा है जिसके कारण ये लोग महंगाई से परेशान हैं।"
मजदूरों की समस्याएं
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के छुरा ब्लॉक में कई आदिवासी गाँव हैं जहाँ कई तरह की समस्याएं पैदा हो गई हैं। पहली, इस क्षेत्र के आदिवासी अपने घरों को चलाने के लिए दैनिक मजदूरी पर निर्भर हैं। अब वह काम बंद हो गया है। इस कारण उन्हें काफी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। दूसरा संकट ये है कि जो आदिवासी खेती करते हैं और अपने खेतों में फसल उगाते हैं, वे अपने उपज को बेच नहीं पा रहे हैं।
शीलन ठाकुर (आयु 43) एक मकान मिस्री हैं जो ग्राम रूवाड के रहने वाले हैं। लॉकडाउन के कारण मजदूरों को हो रही कई दिक्कतों के बारे में बताते हुए, शीलन ठाकुर कहते हैं कि जो व्यक्ति रोजाना मजदूरी काम करके अपने परिवार चलाते हैं आज उनकी समस्याएं और भी बढ़ गई हैं। "मैं एक दिन की मजदूरी के काम में रोजाना 150 से 300 रुपये तक पैसा कमा लेता था, लेकिन इस लाॅकडाउन में मेरी कोई कमाई नहीं हो पा रही है। जिसके कारण हमारी आर्थिक स्थिति ढ़ीली पड़ती जा रही है।"
पहले लोग काम की तलाश में इधर-उधर जाकर मजदूरी करते थे, परंतु कोविड-19 लॉकडाउन के कारण उन्हें काम मिलना बंद हो गया है। आदिवासी लोगों के लिए चावल, चना की व्यवस्था तो सरकार कर रही है, लेकिन दाल, साग-सब्जी व तेल-मसालों के लिए इस लाॅकडाउन में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। लाॅकडाउन के कारण कई आदिवासी परिवार भूख से जूझ रहे हैं।
मोहित कुमार जगत (आयु-22) एक किसान हैं जो ग्राम लादाबाहरा के निवासी हैं। इनका कहना है कि छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाकों में अधिकतर लोग अपने घरों पर अनेक प्रकार के कलात्मक वस्तु बना कर बाजार में बेचते हैं या फिर खेती-किसानी और मजदूरी करके पैसे कमाते हैं। लाॅकडाउन के कारण इस समय न ही लोगों की बनाई हुई चीजें बिक पा रहे हैं और न ही इस समय मजदूरों को काम मिल पा रहा है। छोटे किसानों को अपनी साग-सब्जी को बेचने में या फिर बाहर मंडी में भेजने में काफी दिक्कतें आ रही हैं। आस-पास की दुकानों में राशन भी खत्म हो गये हैं। कुछ परिवार ऐसे हैं जो संकट से निपटने के लिए घर पर सब्जियों की खेती करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें बीज उपलब्ध नहीं हैं। लॉकडाउन में अंदरूनी ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब लोगों को और भी ज्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।
हम जानते है सरकार द्वारा हर एक परिवार को चावल, चना मिल जाता है, लेकिन साग-सब्जी और अन्य जरूरी सामान का जैसे- दाल, तेल, मसाले, फल, दूध, और दवाइयों आदि का व्यवस्था करने में काफी दिक्कतें सामने आ रही है। बड़े परिवारों के लिए 35 किलो चावल पर्याप्त नहीं होता है। लॉकडाउन की वजह से आदिवासियों को होने वाली दिक्कतों को देखते हुए सरकार को कोई अच्छा कदम उठाना चाहिए, ताकि आगे फिर कभी ऐसी मुश्किलों का सामना करना ना पड़े।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
Comentários