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Narendra Sijui

झारखंड के इस गांव की हल्दी ने मचाई धूम, जानिए कैसे!

अक्सर यह सुनने में आता है कि आदिवासी क्षेत्रों में सबसे गुणवत्ता वाली चीजें मिलती हैं, क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में रासायनिक खाद्य पदार्थों से मुक्त वातावरण होता है, जिससे शुद्ध एवं साफ़ वातावरण वाला फल-फूल मिलता है। यही कारण है कि, झारखण्ड के सरायकेला-खरसावां जिले के खरसावां प्रखंड के रायेजमा गांव में सबसे उच्चतम गुणवत्ता वाली हल्दी पाई जाती है। इस क्षेत्र में धान की खेती के बाद दूसरी सबसे बड़ी खेती हल्दी की होती है। यही नहीं, रायेजमा से सटे गांव कंडरकुटी, मेरोमजांगा, गोमियाडिह, रायंसिदरी, और कुचाई के कई क्षेत्रों की हल्दी सबसे अधिक गुणवत्ता वाली पाई गई है। इस हल्दी की खेती पारंपरिक तौर-तरीकों से की जाती है।

खेत में लगे हल्दी के पौधे

रायेजमा गांव चारों ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ है और वहां के खुबसूरत नज़ारे को देखते हुए वहां के निवासी लक्ष्मण हेम्ब्रम बताते हैं कि हम सभी कई सालों से हल्दी की खेती करते आ रहे हैं। इस हल्दी की खेती में उतनी मेहनत नहीं लगती है। एक बार हल्दी लगा दो और छोड़ दो, बस! जब मैंने पूछा कि, "मैंने सुना है कि यहाँ की हल्दी विश्व की सबसे उच्चतम गुणवत्ता वाली है?" तब लक्ष्मण हेम्ब्रम हंसते हुए बोले, "जी साहब, हम भी सुने हैं। पिछले सालों से बड़े-बड़े साहब आकर कुछ सैंपल लेकर राज्य खाद्य जांच प्रयोगशाला, नामकुम, रांची गए थे। वहां जांच करने के बाद पता चला कि हम जो खेती कर रहे हैं, वह विश्व की सबसे उच्चतम गुणवत्ता वाली हल्दी है। तब हम लोग भी आश्चर्यचकित हुए थे। हमें खुशी है कि हम जो उत्पादन कर रहे हैं, वह विदेशों की सब्जियों को भी स्वादिष्ट बना रही है।"


उन्होंने आगे बताया कि धीरे-धीरे अब सरकार की कई योजनाएं भी इस पर काम कर रही हैं, जिससे खेती करने से लेकर पाउडर बनने तक और पैकिंग करने तक का काम हमारे ही गांव में किया जाता है। इससे हमारी और गांव की अर्थव्यवस्था में बदलाव आ रहा है।

खरसावाँ के हल्दी पाउडर का पैकेट

स्थानीय निवासी कुदराय कुरली भी उस शाम को खुबसूरत प्रकृति के नज़ारे देखते हुए कहते हैं कि यह सारे मरांग बुरू की देन है। जांच रिपोर्ट में यह पाया गया है कि साधारण हल्दी में करक्यूमिन की मात्रा 2-3% होती है और हमारे यहाँ की हल्दी में 7-8% करक्यूमिन की मात्रा पाई जाती है। इससे हमारी मांग ऑनलाइन प्लेटफार्म पर सबसे अधिक है। सरकार की ट्राइफेड, झारक्राफ्ट जैसे संस्थाएं इस प्रोडक्ट को आगे बढ़ा रही हैं और विदेशों तक पहुंचा रही हैं।


जब हम अगली सुबह खेत की ओर निकले तो खेत में मुकेश मुण्डा जी हल्दी की खेती कर रहे थे। जैसे ही हमने उनसे पूछा तो वह घबरा गए। मैंने कहा, "घबराइए मत, मेरा नाम नरेंद्र सिजुई है और मैं आदिवासी लाइव मैटर्स के लिए लेख लिखता हूं। मुझे आपकी खेती के बारे में जानकारी लेनी है। तो बताइए कि आपकी हल्दी कितने दिन में तैयार हो जाती है और आप इसे किस-किस काम में उपयोग करते हैं और आपके यहां कितने रुपये में बिकती है?"

गाँव वालों से बातचीत करने के दौरान की तस्वीर

तो उन्होंने जवाब दिया कि "चार से पांच महीने में हल्दी तैयार हो जाती है। हम इसे सब्जी बनाने में उपयोग करते हैं और यह हमारे यहां 10-20 रुपये की दर से बिकती है। खरसावां के गुरुवार बाजार में यह आसानी से मिल जाती है। ऑनलाइन में भी बिकती है, जिसका एक किलो 350 रुपये में बिकता है। उसकी पैकिंग यहीं मेरे गांव में की जाती है।"


फिर धीरे से अपनी हो भाषा में बोलते हैं कि, "हें देरगं अबुए ससगं दो निमिन सिबिल गिया। सबिन पुरे दिसुम ते आबुए ससगं गे बुगिनए।" अर्थात् "ओ अच्छा! हमारा हल्दी इतना स्वादिष्ट, इसलिए पुरे दुनिया भर में हमारा हल्दी इतना अच्छा है।"


कभी इस क्षेत्र में नक्सलियों का गढ़ हुआ करता था, लेकिन वर्तमान में हल्दी की खेती करते हुए पूरे विश्व में अपने गांव का नाम रोशन कर रहा है।


लेखक परिचय:- झारखण्ड के रहने वाले नरेंद्र सिजुई जी इतिहास के छात्र हैं और आदिवासी जीवनशैली से जुड़े विषयों पर प्रखरता से अपना मत रखते हैं।

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