ऐसा कहा जाता है कि कोल्हान (वर्तमान में झारखंड के तीन जिले- पूर्वी सिंहभूम, पश्चिम सिंहभूम और सरायकेला-खरसावां कोल्हान प्रमंडल कहलाते हैं।) के लोग कभी किसी मुगलों, मराठों और अंग्रेज़ों के गुलाम नहीं रहे हैं। ऐसे इसलिए क्योंकि कई बड़े योद्धा इस पवित्र भूमि की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिए।
उन्हीं में से कई योद्धा सेरेंगसिया घाटी (सेरेंगसिया घाटी चाईबासा जगन्नाथपुर में मुख्य मार्ग पर है, यह चाईबासा से 29 किलोमीटर और जगन्नाथपुर से 19 किलोमीटर की दूरी पर प्रकृति के गोद में स्थित है।) में हुए भीषण युद्ध को भी जीतने में अपनी अहम भूमिका निभाएं हैं। इनमें मुख्य हैं - पोटो हो, देवी हो, बोड़ो हो, बुड़ाई हो, नारा हो, पंडुवा हो, भुगनी हो। पोटो हो को इन सभी के नेतृत्वकर्ता के रूप में जाना जाता है। कोल्हान में अलग-अलग जगह पर चल रहे विद्रोह ही आगे चलकर सेरेंगसिया में एक बड़े युद्ध का रूप ले लेता है।
हम बात कर रहे हैं 1820-21 ई की, उस समय एक राजा थे जगन्नाथ सिंह जो अपने आप को सिंहभूम का राजा घोषित कर दिए थे। जिस कोल्हान को कभी किसी मराठों या मुगलों ने अपने अधीन नहीं कर पाए उन्हें अपना अधीन करने की कोशिश में इस राजा ने अंग्रेज़ों का मदद भी लिए थे। रोरो नदी के किनारे 'हो' जनजाति के लोगों और अंग्रेज़ों के बीच लड़ाई लड़ी गई इस युद्ध में अंग्रेज़ जीत गए थे। लेकिन चाईबासा से उतरी भाग वाले 'हो' लोग अभी भी अंग्रेज़ के अधीन नहीं थे और दक्षिण कोल्हान के 'हो' लोगों ने अभी भी विरोध जारी रखा था। उस वक़्त इस क्षेत्र में मौजूद अन्य छोटे राजा भी इससे परेशान थे और वे भी अंग्रेज़ों के साथ मिलकर 'हो' आदिवासियों के इस विद्रोह को दबा देना चाहते थे। 1821 में लगभग दो महीने तक युद्ध हुआ। अंग्रेज़ों को समझ आ गया कि 'हो' लोगों से जितना मुश्किल है। इसलिए अपना नया चाल चला और 'हो' लोगों के साथ संधि कर लिया। अब 'हो' लोग राजा को तथा जमींदारों को आठ आना (50 पैसा) प्रति हल सालाना कर के रूप में देने की बात हुई, परन्तु विद्रोह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था।
आगे चलकर यह विद्रोह 1831-32 ई में कोल विद्रोह कहलाने लगा। कोल विद्रोह अंग्रेज़ों के खिलाफ़ ही था क्योंकि वे कर को बहुत ही शक्ति से वसूल रहे थे, जो कर नहीं दे पा रहे थे उसकी ज़मीन को नीलाम की जा रही थी, और तो और अंग्रेज़ों और जमींदारों द्वारा घर की बहू बेटियों की इज्जत भी लूटी जा रही थी। उस समय इन अत्याचारों से आदिवासियों की रक्षा के लिए कोई नहीं था। थाना और न्यायालय भी जमींदारों एवं महाजनों का ही साथ दे रहे थे। इसी आक्रोश में 1831 ई को लोगों का आंदोलन बहुत जोरशोर से शुरू हुआ। इस आंदोलन को सिंदराय, बिंदराय और सुर्गा मानकी नेतृत्व प्रदान कर रहे थे। यह कोल विद्रोह इतना फैल गया कि कोल्हान के अलावा रांची, टोरी, हजारीबाग इत्यादि जगह में भी होने लगा। अब छापामार और गुरिल्ला युद्ध कर आदिवासी अंग्रेज़ों और जमींदारों पर भारी पड़ने लगे थे। कोल विद्रोह को लकड़ा विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है। सिलागाई, चान्हो, रांची इत्यादि तरफ अब बुधू भगत, जोआ भगत और उनके साथी लोग नेतृत्व कर रहे थे, इस विद्रोह में अंग्रेज़ों के बहुत नुकसान हो रहा था। इसलिए अंग्रेज़ों द्वारा 18 जनवरी 1833 सरायकेला में एक हिल असेम्बली बुलाई गई, फ़िर से हो लोगों और अंग्रेज़ों के बीच समझौता हुआ, इस बार बंगाल अधिनियम पारित किया गया और छोटानागपुर क्षेत्र को विनियमन मुक्त क्षेत्र घोषित किया गया।
अब आंदोलन तो रुक गई थी लेकिन अंग्रेज़ अपने हरकतों से बाज नहीं आए थे। उन्होंने फ़िर से पुलिस बल की मदद से फरवरी 1837 को सिंहभूम के कई सारे गाँव को अपने अधीन कर लिया था और दक्षिण पश्चिम सीमांत एजेंसी की स्थापना की गयी, थॉमस विल्किंसन को इस एजेंसी का एजेंट बनाकर भेजा गया। यह देख फ़िर से विद्रोह शुरू हो गया था, इसी आंदोलन/ विद्रोह में पोटो हो भी शामिल होते हैं और यहीं से शुरू होती है सेरेंगसिया घाटी की कहानी।
पोटो हो का जन्म पश्चिम सिंहभूम जिला के अंतर्गत जगन्नाथपुर प्रखंड के राजाबाषा में हुआ था। पोटो सरदार (हो) के नेतृत्व में आसपास के लगभग 22 पीड़ों के लोग अंग्रेज़ों के खिलाफ़ विद्रोह का बिगुल बजा दिए थे। बहुत जगह छोटा मोटा लड़ाई भी होने लगा था। हर बार अंग्रेज़ अपना मुँह उठाकर भाग जाते थे। इससे आन्दोलनकारी 'हो' लड़ाकों का और भी हौसला बढ़ जाता था। अंग्रेज़ों के विरोध में बलांडिया गाँव में गुप्त सभा की गई, जिसमें सेरेंगसिया और बागाबिला घाटी में अंग्रेज़ों को रोकने का निर्णय लिया गया। आसपास के सभी गाँव के मुंडा को तीर भेजकर विद्रोह में शामिल होने के लिए निमंत्रण भेजा गया। इस बात का खबर अंग्रेज़ों को थी ही नहीं, उधर विल्किंसन आंदोलन को दबाने के लिए अपने अफसरों के साथ 12 नवंबर को चाईबासा में बैठक किए। विरोध को दबाने के लिए 17 नवंबर को कैप्टन आर्मस्ट्रॉन्ग के नेतृत्व में 400 पैदल सैनिक, 60 घुड़सवार सिपाहियों और दो तोपों के साथ बाढ़पीड़ में 'हो' लोगों के साथ युद्ध के लिए रवाना हुए थे, परंतु इसकी खबर पोटो हो को मिल चुकी थी इसलिए वे पहले से ही तैयार थे। 18 नवम्बर को पोटो हो अपने साथियों के साथ सेरेंगसिया घाटी तथा बागाबिला घाटी से अंग्रेज़ों को मार भगाया। इस छापामार युद्ध में 26 'हो' लड़ाके शहीद हुए थे और अंग्रेज़ों की तरफ़ से एक सूबेदार एक हवलदार और 13 सिपाही घायल हुए थे।
इस युद्ध के बाद अंग्रेज़ों द्वारा 20 नवंबर 1837 को राजाबाषा में आक्रमण किया गया, और पूरे गाँव को जला दिया गया। इस गाँव से छह लोगों को गिरफ़्तार किया गया, जिसमें फोटो हो के पिता भी थे। आसपास के और भी कई गाँवों को जलाया गया, एवं वहाँ मौजूद पशुओं को भी मार दिया गया। 22 नवंबर 1837 को तोरांगहातु में हमला किया गया, यहाँ उन्हें सिर्फ़ आठ महिलाएं और दो पुरुष मिले, पुरुषों को मार दिया गया और महिलाओं को गिरफ़्तार किया गया। तगड़ाहातु और जयपुर गाँव पर भी हमला कर गाँव को जला दिया गया। बहुत खोजबीन के बाद 8 दिसंबर को पोटो हो को सेरेंगसिया गाँव से गिरफ़्तार किया गया। उसके बाद उनके सभी साथियों को भी धीरे-धीरे कर गिरफ़्तार कर लिया गया। 1 जनवरी 1838 को पोटो हो, बुड़ई हो तथा नारा हो को जगन्नाथपुर के बरगद पेड़ पर फांसी दी गई। जबकि अगला दिन 2 जनवरी को बोरो हो तथा पंडुवा हो को सेरेंगसिया घाटी में फांसी दी गयी। और बाकी 79 हो वीर लड़ाकों को विभिन्न आरोपों में जेल भेज दिया गया।
इस युद्ध का परिणाम यह हुआ कि 1837 में ही कोल्हान को कोल राज्य घोषित किया गया। इसी युद्ध के वजह से और यहाँ के आदिवासियों के विरोध को देखते हुए ही कोल्हान में स्वशासन व्यवस्था को बनाए रखने के लिए विल्किंसन रूल लागू किया गया। 2 फरवरी के दिन सेरेंगसिया शहिद स्थल पर आस-पास के गाँव वालों के अलावा चाईबासा, चक्रधरपुर, जमशेदपुर, मनोहरपुर, रांची, जगन्नाथपुर इत्यादि दूर दूर से लोग आते हैं और शहीद स्मारक पर तेल डाल कर एवं अगरबत्तियां जला कर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इस पवित्र स्थान पर राज्य के मुख्यमंत्री के साथ राज्य के नेतागण भी आते हैं और श्रद्धांजलि देते हैं। समिति के तरफ से दिउरी सेरेंगसिया घाटी के युद्ध में शहीद हुए वीरों को सामुहिक रूप से पारंपरिक तरीके से पूजा अर्चना कर श्रद्धांजलि देते हैं। शहिद दिवस के शुभ अवसर पर सेरेंगसिया गाँव में स्पोर्ट के बहाने से मेला भी होता है।
उपरोक्त सभी जानकारियां 'हो' आदिवासियों के परम्पराओं और उनके इतिहास पर शोध कर रहे लोगों से बातचीत करके प्राप्त की गई हैं। इनमें षुकेन हेस्सा, निर्मल सिंकू, तथा मनोज बिरुवा का प्रमुख रूप से सहयोग मिला।
नोट:- शोध के अनुसार मिली पहले जानकारी से बोरो हो और पंडुवा हो को 2 फरवरी 1838 को फाँसी दी गई थी। लेकिन जब दोबारा शोध किया गया तो पता चला कि 2 फरवरी नही बल्कि 2 जनवरी था। इसलिए बहुत लोगों में दिनाँक के लेकर ग़लतफ़हमी है।
लेखक परिचय:- चक्रधरपुर, झारखंड के रहने वाले, रविन्द्र गिलुआ इस वक़्त अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर कर रहे हैं, भारत स्काउट्स एवं गाइड्स में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हैं। लिखने तथा फोटोग्राफी-वीडियोग्राफी करने के शौकीन रविन्द्र जी समाजसेवा के लिए भी हमेशा आगे रहते हैं। वे 'Donate Blood' वेबसाइट के प्रधान समन्वयक भी हैं।
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