प्राचीन काल से ही आदिवासी समुदाय बाहरी दुनिया से दूर जंगलों में रहते आए हैं। यह बहुत अचरज की बात है कि, बाहरी दुनिया से संपर्क न होते हुए भी उनका जीवन निर्वाह काफ़ी आसानी से हो जाता था।
इसी क्रम में उन्होंने अपने जीवनयापन को आसान करने के लिए जंगलों में मौजूद संसाधनों से अनेकों औज़ार और यंत्र बना लिए थे।
ऐसे ही एक यंत्र है 'तिरही', इसका उपयोग आदिवासी तेल निकालने के लिए करते हैं, कई गाँवों में इसका प्रचलन आज भी है।
चूंकि आदिवासी जंगलों में रहते आएँ हैं, ऐसे में अनेकों पेड़ पौधों के फल एवं बीज उनके भोजन का हिस्सा बने रहे हैं। इन्हीं में से कई सारे फलों के बीजों से तेल निकालना भी वे शुरू कर दिए। कुसुम, महुआ, मूंगफली, करंज, नीम, आदि फलों के तेल का उपयोग कई कामों में होता है। बीजों से तेल निकालने में 'तिरही' का ही इस्तेमाल होता है।
तिरही कैसे बनती है ?
तिरही को बनाने के लिए किसी विशेष इंजीनियरिंग की ज़रुरत नहीं पड़ती है, इसे गाँव का कोई भी बढ़ई या साधारण व्यक्ति बना सकता है। 'तिरही' का सभी मुख्य भाग पूरी तरह से लकड़ी का बना होता है। इसमें मुख्यतः साल वृक्ष के लकड़ी का उपयोग किया जाता है। साल पेड़ के लकड़ी के उपयोग को अच्छा माना जाता है, इसके लकड़ी काफ़ी मज़बूत और टिकाऊ होते हैं।
'तिरही' बनाने में छोटे बड़े लकड़ियों को इस प्रकार रखा जाता है कि, दो लकड़ियों के बीच में बीजों को रखकर दबाने से तेल निकलने लगता है।
तेल निकालने की प्रक्रिया
शुद्ध तेल निकालने के लिए सबसे पहले उस बीज का चयन करना पड़ता है जिसका तेल चहिए, बीज चयन होने के बाद उसे बारीक़ रूप से कूट दिया जाता है। इसके पश्चात् इस कूटे हुए बीज को किसी कपड़े में बाँधकर गर्म पानी से निकलते हुए भाप पर रख दिया जाता है। भाप से जब नमी आ जाती है, तब इसे पुटली में रखा जाता है, फिर सीधे तिरही के बीच में रखकर रस्सी के जरिये दबाया जाता है। आधा-एक घंटे बाद जब बीज में मौजूद सारा तेल दबाकर निकाल लिया जाता है, तब दबाना छोड़ देते हैं।
बीजों से निकला यह तेल बिल्कुल शूद्ध होता है, अब इसका उपयोग भोजन बनाने में, बालों में लगाने, बदन पर लगाकर मालिश करने, इस जैसे अनेकों कामों किया जा सकता है।
यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अन्तर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog Samaj Sevi Sanstha और Misereor का सहयोग है l
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