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Writer's pictureJyoti

जानिए आदिवासियों ने इस पर्व के साथ खेत, किसानों और प्रकृति के प्रति कैसे जताया आभार?

कल पूरे छत्तीसगढ़ में बड़े ही धूमधाम के साथ हरेली त्यौहार का महा पर्व मनाया गया, यह पर्व कृषक और कृषि को समर्पित है। इसमें बारिश के आगमन से लेकर धान की बोवाई में, उसके खेती के साथी बैल, तथा उसके कृषि उपकरणों ने जो सहयोग किया उन सबके प्रति कृतज्ञता जाहिर करने का पर्व है। हरेली छत्तीसगढ़ी लोक परम्परा का सबसे लोकप्रिय और छत्तीसगढ़वासियों का पहला त्यौहार है। पर्यावरण को समर्पित यह त्यौहार छत्तीसगढ़ी लोगों का प्रकृति के प्रति प्रेम और समर्पण दर्शाता है।


हरेली में सुबह से ही विभिन्न गतिविधियां आरम्भ हो जाती हैं, इस दिन किसान खेतों पर काम नहीं करते उनके साथ मजदूरों की भी छुट्टी रहती है, इस दिन हल्की बारिश के बीच भी किसान अपने कुलदेवता की पूजा करते हैं, फिर ग्रामदेवता की पूजा होती है तत्पश्चात कृषि उपकरणों यथा-नांगर (हल), राफा (फावड़ा), गैंती, कुदाली, टंगिया, बंसूला आदि की पूजा की जाती है इसमें भी हल का जो फाल होता है वह मुख्य रूप से पूजा जाता है। कृषि उपकरणों का पूजन, धूप, फूल आदि से किया जाता है। इस त्यौहार का मुख्य पकवान आदिवासियों का सुप्रसिद्ध चीला रोटी होता है जिसको भोग के स्वरूप कृषि उपकरणों में चढ़ाया जाता है।

चीला रोटी के साथ अपने कृषि औज़ारों की पूजा करते किसान

बस्तर में यह पर्व अनोखे तरीके से मनाया जाता है, इसकी शुरुआत कृषकों के द्वारा सुबह से अपने खेतों में जाकर भेलवां पान और शतावरी के पत्तों को तेंदू के तने से जोड़कर खेत में लगाया जाता है। भेलवां एक जंगली फल वाला पेड़ है और शतावरी हरी रंगत वाली एक कांटेदार बेल है जो कि जंगलों में पाए जाते हैं। माना जाता है कि शतावरी और भेलवां के पत्ते को खेतों के बीच लटका देने से खेतों में कीड़े मकोड़े नहीं आते हैं जिससे कि फसलों में कीट व्याधि का नियंत्रण प्राकृतिक रूप से हो जाता है। इसी क्रम में किसान अपने खेतों में राउत द्वारा दी गयी दवाई जो रसनाजड़ी कहलाती है, उसका छिड़काव भी करते हैं।


छत्तीसगढ़ में इस के दिन दो अन्य समुदाय राउत और लोहार का विशेष महत्व है। राउत समुदाय के लोग गांवों में प्रत्येक घर सुबह-सुबह जाकर अनिष्ट से रक्षा के लिए भेलवां पान या नीम की डगाल घर के चौखट के ऊपर में लगाते हैं। इसी तरह लोहार द्वारा घर की चौखट पर कील ठोकने का रिवाज है, माना जाता हैं कि उनके द्वारा ठोका गया यह कील कष्टकारी शक्तियों से रक्षा कवच का काम करती हैं इसपर उन्हें घर मालिक द्वारा स्वेच्छा से दाल, चावल, घर-बाड़ी की सब्जीयां और कुछ रुपये उपहार स्वरूप दिए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि इन मान्यताओं का कोई आधार नहीं रहा है, दरअसल सावन के महीने में अधिक पानी से कई तरह के रोगजनित जीवाणु, कीटाणु, कीड़े मकोड़े और हानिकारक वायरस पनपने का खतरा पैदा हो जाता था, आदिवासी मान्यताओं के अनुसार दरवाजे पर लगी नीम की पत्ती और चौखट पर लगा लोहा उनके यहाँ अनचाहे फंगस या बैक्टीरिया आदि को पनपने से रोकती हैं।



हरेली पर्व का मुख्य आकर्षण है डिटोंग (गोरोंदी/गेड़ी, लकड़ी का एक ऐसा ढांचा जो मृदा सतह से पैरों के बल पर ऊपर चलने में प्रयुक्त होता है) एक ओर जहाँ किसान सेवा विनती करने में व्यस्त रहते हैं, वहीं युवा और बच्चे डिटोंग चढ़ने के लिए उत्सुक रहते हैं। सुबह से ही घरों में डिटोंग बनाने का काम शुरू हो जाता है, डिटोंग पहले जमाने में आवश्यक रूप से चार पेड़ के लकड़ी द्वारा बनाया जाता था। लेकिन वर्तमान में इस पेड़ की कमी होने के कारण अन्य लकड़ी या बांस का भी बनाया जाता है, जो उस पर चढ़ के चलने वाले की सुविधा के हिसाब से होता है। बच्चे और युवा इस पर चढ़ के चलने के लिए अति लालायित रहते हैं।

डिटोंग पर चढ़ कर चलता एक बालक

माना जाता है कि वर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही यह मौसम अपने साथ कई प्रकार के फंगस बैक्टीरिया और बीमारियां लाती है, और इन सबसे बचाव के लिए कोईतुर आदिवासियों के पूर्वजों ने डिटोंग (गोरोंदी/गेड़ी) का निर्माण किया अब भी आदिवासियों की यह परंपरा हजारों पीढ़ी से सतत रूप में चली आ रही है। इसका उपयोग तब तक किया जाता हैं जब तक फंगस और बैक्टीरिया की क्रियाशीलता कम ना हो जाए, यानी कि पुनांग तिंदाना (नवाखानी/ नवाखाई) तक। पुनांग तिंदाना के दूसरे दिन गाँव के समस्त कोयतुर युवा डिंटोंग को हर्षोल्लास के साथ गोंडी गीतों के माध्यम से गाँव के किसी सुनिश्चित स्थान डेंगूर (कहा जाता हैं कि इसमें डिंटो पेन (देव) रहते हैं) को समर्पित कर दिया जाता है। युवा अपने साथ चावल दाल तथा रसोई की सामाग्री लेकर अर्जी विनती कर अपने गीतों के माध्यम से डिटोंग की विदाई करते हैं।


बस्तर के युवाओं का डिटोंग नृत्य अद्भुत है।यह देखने में काफ़ी रोमांचक होता है। बस्तर में डिटोंग को गोरोंदी कहा जाता है। हालांकि डिटोंग गोंडी शब्द है। बस्तर में हरेली पर्व एक और विशेष बात से जुड़ी है, सर्वविदित है कि बस्तर का विश्वप्रसिद्ध दशहरा पचहत्तर दिनों का होता है, जिसकी शुरुआत हरेली अमावस्या की पहली नेंग के साथ ही शुभारंभ हो जाती है।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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