अंग्रेज़ हुकूमत के विरुद्ध स्वप्रथम हथियार भारत के पहाड़िया शूरवीर तिलका मांझी ने उठाया था। इन्हें “आदि विद्रोही” के साथ ही “जबरा पहाड़िया” के नाम से भी जाना जाता है। इनका जन्म भागलपुर के तिलकापुर गांव में 11 फरवरी 1750 ई. में हुआ था। आमतौर पर समूचे आदिवासियों में बच्चों के नाम उनके पूर्वजों के नामों पर रखने का होता है, किन्तु यहाँ इनका नाम इनके गांव के नाम के ऊपर रखा गया। जिसके कारण उनके संथाली होने पर आज भी विवाद है, चूँकि पहाड़िया समुदाय में 'जबरा' नाम काफी आम है।
संतालों में भी मांझी होते हैं और बहुसंख्यक व संथाल विद्रोह के कारण वे ज्यादा जाने गए, इसलिए तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया के संताल आदिवासी होने का भ्रम फैला। अंग्रेजों ने 'जबरा पहाड़िया' को खूंखार डाकू और गुस्सैल (तिलका) मांझी (समुदाय प्रमुख) कहा। वैसे, पहाड़िया भाषा में तिलका का अर्थ है, गुस्सैल व्यक्ति।
तिलका ने किशोरावस्था से ही अपने परिवार और समुदाय पर अंग्रेजों का अत्याचार देखा था। पहाड़िया समुदाय की खेती की भूमि और जंगलों पर अंग्रेजी शासकों ने कब्ज़ा कर लिया था। पहाड़ जमींदारों के स्वामित्व में थे और उनका उपयोग ब्रिटिश व्यक्तियों को नकदी के व्यापार-बंद के रूप में बचाने के लिए किया जाता था। परिणामस्वरूप तिलका ने आदिवासियों के जमीनों पर परम्परागत अधिकार तथा आदिवासी संस्कृति को बचने के लिए अंग्रेज़ों के विरुद्ध भागलपुर, संथाल परगना के क्षेत्र में सन् 1772 में विद्रोह किया। विद्रोह का केंद्र बनचरीजोर नामक स्थान रहा, और सुल्तानगंज की पहाड़ियों से गुरिल्ला युद्ध का नेतृत्व किया। तिलका का यह विद्रोह लगभग एक दशक तक चलता रहा।
तिलका आंदोलन का मुख्य उद्देश्य आदिवासी स्वायत्तता की रक्षा, अपने क्षेत्र से अंग्रेज़ों को खदेड़ना, अंग्रेज़ एवं उनके पिट्ठुओं तथा साहूकारों और सामन्तवादी प्रथा के समर्थकों से मुक्ति था। तिलका द्वारा गांव में विद्रोह का सन्देश "सखुआ पत्ते" के माध्यम से भेजा जाता था। तिलका ने अंग्रेज़ों के शाही खजानों को मोरगोदरे एवं तेलियागढ़ी दर्रे तथा कहलगाँव में 'लूटकर' गरीबों में बाँट दिया था। तिलका ने सन् 1778 में पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेड़ कर कैंप को मुक्त कराया।
सन् 1784 में तिलका ने अपने साथियों के साथ भागलपुर में आक्रमण किया। उस दौर में जबरा प्रत्यक्ष रूप से भागलपुर के तत्कालीन जिला कलेक्टर क्लीवलैंड द्वारा गठित ‘पहाड़िया हिल रेंजर्स’ के सेना नायक के रूप में अंग्रेजी शासन के वफ़ादार बनने का दिखावा करते थे और नाम बदल कर तिलका मांझी के रूप में अपने सैंकड़ों लड़ाकों के साथ गुरिल्ला तरीके से अंग्रेज शासक, सामंत और महाजनों के खिलाफ युद्ध करते थे। उस आक्रमण में तिलका ने क्लीवलैंड को अपने तीर से घायल कर दिया था, जिसके पश्चात अंग्रेज़ अधिकारी क्लीवलैंड की मृत्यु हो गयी।
बाद में 12 जनवरी 1785 में अँगरेज़ अधिकारी आयर कुट के नेतृत्व में जउराह नमक पहाड़िया सरदार के साथ मिलकर जबरा की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ, जिसमें कई लड़ाके मारे गए और तिलका को गिरफ्तार कर लिया गया। कहते हैं, उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद, वह पहाड़िया लड़ाका जीवित था। खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रिटिश हुकूमत को डरा रही थी। भय से कांपते हुए अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल बरगद पर '13 जनवरी' को सरेआम फाँसी में लटका कर उनकी जान ले ली। हजारों की भीड़ के सामने जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। बाद में आजादी के हजारों लड़ाकों ने जबरा पहाड़िया का अनुसरण किया और फांसी पर चढ़ते हुए, “हांसी-हांसी चढ़बो फांसी” गीत गाया। मृत्यु के वक़्त तिलका की उम्र मात्र 35 वर्ष थी।
तिलका उन पहले आदिवासियों में से एक थे, जिन्होंने भारत को गुलामी से मुक्त कराने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। उन्होंने यह लड़ाई पुस्तैनी जमीनों की रक्षा व स्वशाशन को कायम रखने के लिए लड़ी थी। चूँकि आदिवासियों के लिए उनकी जमीन से बढ़कर और कुछ नहीं होता, इसी जमीन पर खेती कर वे अनाज ऊगा कर अपना तथा परिवार-जनों का भरण-पोषण करते हैं और इसी जमीन में मृत्यु के पश्चात समा जाते हैं। आदिवासी अपने मृत सगे-सम्बन्धियों को एक ही स्थान पर आस-पास में तोपते हैं, इसलिए भी उनके लिए जमीन की अहमियत और बढ़ जाती है।
आजादी के पूर्व पुरे भारतवर्ष में जहाँ आदिवासियों ने अपनी जमीनों व जंगलों को सुरक्षित करने के लिए अंग्रेज़ों से लोहा लिया, आज वहीँ लोहा व खनिजों का खनन करने के लिए सरकारों द्वारा आदिवासियों के जमीनों एवं जंगलों को लूटा जा रहा है। एक ओर जहाँ आजादी से पूर्व आदिवासी क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों से लड़ कर अपनी जमीनों को संरक्षित करने के लिए नियम व कानून बनवा कर लागु करने के लिए बाध्य किया, वहीँ आज के दौर में पूँजीपतियों के हित साधने के लिए सरकारों व कानून द्वारा आदिवासियों के अधिकारों का हनन हो रहा है। उस दौर में अन्याय के विरुद्ध हथियार उठाना आम था, लेकिन मौजूदा समय में हथियार उठाना प्रासंगिक नहीं है। इसलिए आदिवासी समुदायों को उचित माध्यमों से अपने हक़ व अधिकारों की रक्षा के लिए आगे आना ही होगा। और आज के दौर का बिरसा-तिलका बनना होगा।
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