छत्तीसगढ़ का गरियाबंद जिला विशेष पिछड़ी अनुसूचित जनजाति भुजिया एवं कमार जाति के लिए जाना जाता है। यहाँ इन समुदायों की कला एवं संस्कृती हर स्थान पर देखने को मिलती है, इन्हीं सबके बीच में जो अल्पसंख्यक आदिवासी समुदाय हैं उनकी संस्कृति आजकल धूमिल होती जा रही लेकिन गरियाबंद जिले का एक छोटा सा गाँव भीरालडा अपवाद है, यहाँ आज भी गोंडी संस्कृति, गोंडी लोक नृत्य आदि देखने को मिलते हैं। इसमें भी सबसे अच्छी बात यह है कि इन सब को बचाने एवं संरक्षित करने में गाँव का ही एक युवा लड़का जितेंद्र नेताम अपना भरपूर योगदान दे रहा है।
जितेन्द्र नेताम 12वीं की पढ़ाई किये हुए हैं, वे एक अच्छे कवि भी हैं जो अपने गोंड समाज के लिए बहुत सुंदर-सुंदर कविता एवं कहानी भी लिखे हैं। नेताम जी ने स्कूली शिक्षा खत्म करने के बाद से ही अपनी संस्कृति को जानने और सीखने की ललक को पूर्ण करने में लग गए, जिसके परिणामस्वरूप आज उनके गाँव में छत्तीसगढ़ के गोंडी लोक नृत्य की छवि हमें देखने को मिलती है, और यह पूरे गरियाबंद जिले के लिए गौरव की बात है।
जितेंद्र जी बताते हैं कि "मेरे जो समुदाय के लोग हैं वह ज्यादातर बस्तर संभाग से हैं तो बचपन से ही मुझे बस्तर देखने को मिला है, इसलिए जब मैं अपने गाँव में उन संस्कृतियों को विलुप्त होते देखता था तो मुझे बहुत पीड़ा होती थी किंतु मैं उस समय नौवीं-दसवीं का छात्र था और मेरी उम्र बहुत छोटी थी इसलिए मैं ज्यादा कुछ नहीं कर पाया, लेकिन जैसे ही मैंने 12वीं की परीक्षा के बाद अपनी युवावस्था में आया तो सबसे पहले अपनी संस्कृति को जानने की कोशिश शुरू किया। मेरे गाँव में सभी जाति, समुदाय के लोग रहते हैं तो धीरे-धीरे हम लोग भी आधुनिकीकरण में अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे थे, इसलिए मुझे लगा कि हमें अपनी आदिवासी संस्कृति, नृत्य, गान एवं भाषाओं को नहीं भूलना चाहिए। मैंने सबसे पहले अपनी भाषाओं के बारे में जाना फिर मैंने अपने दोस्तों से इन सब के बारे में चर्चा किया तो मेरे दोस्तों से मुझे उतना अच्छा रिस्पांस नहीं आया क्योंकि आज के युवा आधुनिकीकरण के कारण अपनी संस्कृति को इतना ज्यादा महत्व नहीं दे रहे थे, लेकिन जैसे ही मैंने अपनी संस्कृति के नृत्य के बारे में उन्हें बताया तो सभी ने खुशी जाहिर की कि हम लोग यह नृत्य सीखना चाहते हैं और सभी युवाओं में जोश दिखा, फ़िर मैंने गाँव में अपने समुदाय के अन्य लोगों से बातचीत करके मंदारी नृत्य सिखाने का निर्णय लिया। यह नृत्य युवाओं में बहुत प्रचलित है और घोटुल का यह प्रमुख नृत्य होता है। इसमें पुरूष मांदर बजाते हुए नृत्य करते हैं, वहीं युवतियां हाथों से चुटकियाँ बजाती हुई नृत्य करती हैं। जगह के साथ इस नृत्य के भी स्वरूप बदलते रहते हैं, तो हमने भी इसमें थोड़ा बहुत अपने स्थानीय समुदाय के संस्कृति के साथ मिलाजुला तालमेल बनाकर यह नृत्य तैयार किया है। यह अब हमारे गाँव एवं समुदाय का पहचान बन गया है। युवाओं के साथ अब हम इस नृत्य का प्रदर्शन करने बाहर भी जाने लगे हैं, आदिवासी दिवस या शहीद वीर नारायण सिंह जयंती जैसे कार्यक्रमों में हम अपने इस नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। इस साल रायपुर में हुए इंटरनेशनल ट्राइबल डांस कॉम्पिटिशन में भी हमें प्रदर्शन करने का अवसर मिला जो हमारे लिए बहुत गर्व की बात है।
हमारी इस सफलता को देखते हुए आज हमारे समुदाय के और भी युवा हमारे साथ जुड़ने लगे हैं और इस नृत्य तथा अपनी संस्कृति को जानने का प्रयास करने लगे हैं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरे छोटे से प्रयास से मेरे जैसे और भी कई युवा मेरे साथ जुड़ेंगे लेकिन आज मेरी एक पूरी टीम बन गई है जिनके साथ मैं यह नृत्य करता हूँ, लेकिन सभी लोग कृषि आधारित लोग हैं तो हर समय इस नृत्य का प्रदर्शन के लिए हमें समय नहीं मिल पाता है इसलिए हम लोग जब कृषि कार्य पूर्ण हो जाता है या कृषि कार्य के बीच कोई तीज त्यौहार होता है तो उस दिन इस नृत्य को करते हैं। "
छत्तीसगढ़ के हर गाँव में आज जितेंद्र नेताम जैसे युवाओं की जरूरत है जो अपनी समुदाय की कला संस्कृति के महत्व को समझें और उन्हें जानें तथा अपने जैसे युवाओं को सिखाएं ताकि उनकी संस्कृति विलुप्त न होकर और भी उजागर हो। हम आशा करते हैं कि जितेंद्र नेताम जी की इस पहल से प्रेरित होकर और भी आदिवासी युवा अपने -अपने समुदायों के लिए कुछ कदम उठाएंगे।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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